कर प्रणाम तेरे चरणोंमें
लगता हूँ अब तेरे काज ।
पालन करनेको
आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज॥
अन्तरमें स्थित
रहकर मेरे बागडोर पकड़े रहना ।
निपट निरंकुश
चंचल मनको सावधान करते रहना॥
अन्तर्यामीको
अन्त:स्थित देख सशङिक्त होवे मन।
पाप-वासना उठते
ही हो नाश लाजसे वह जल-भुन॥
जीवोंका कलरव जो
दिनभर सुननेमें मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान
जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे॥
तू ही है सर्वत्र
व्याप्त हरि! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावनासे
अन्तरभर मिलूँ सभीसे तुझे निहार ॥
प्रतिपल निज
इन्द्रियसमूहसे जो कुछ भी आचार करुँ।
केवल तुझे रिझाने
को, बस तेरा ही व्यवहार करुँ ॥
-श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार (भाईजी)
रह पाएगा क्या रस
का चसका,
नहिं कृष्ण से प्रेम लगाएगा जो l
अरे कृष्ण उसे
समझेंगे,
वही रसिकों के समाज में जाएगा जो l l
ब्रज धुल धपेट
कलेवर में ,गुण नित्य किशोर के गाएगा जो l
हँसता हुआ श्याम
मिलेगा उसे, निज प्राणों की बाजी लगाए गा जो l l
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