।। श्री हरि ।।
मेरे मन के धन
तुम ही हो, तुम ही मेरे तन
के श्वास।
आश्रय एक, भरोसा तुम ही, तुम ही एकमात्र विश्वास॥
मैं अति दीन
सर्वथा सब विधि, हूँ अयोग्य
असमर्थ मलीन।
नहीं तनिक बल-पौरुष, आश्रय अन्य नहीं, सब साधन-हीन॥
नहीं जानता
भुक्ति-मुक्ति मैं, नहीं जानता है
क्या बन्ध।
एक तुम्हारे सिवा
कहीं भी मेरा रह न गया सबन्ध॥
नहीं जानता तुम
कैसे हो, क्या हो, नहीं जानता तव।
‘तुम मेरे हो, मेरे ही’, बस तुमसे ही मेरा अपनत्व॥
दीनोंको आदर देने, उनको अपनानेका नित चाव-
रहता तुम्हें, तुम्हारा ऐसा सहज विलक्षण मृदु स्वभाव॥
इस ही निज
स्वभाववश तुम दौड़े आते दीनोंके द्वार।
उन्हें उठाकर गले
लगाते, करते उन्हें स्व-जन स्वीकार॥
जैसे शिशु मलभरा, न धो सकता गंदा मल किसी प्रकार।
नहीं जानता मल भी
क्या है, केवल माँको रहा
पुकार॥
शिशुकी करुण
पुकार सहज सुन, स्नेहमयी माँ आ
तत्काल।
मल धो-पोंछ
स्व-कर कर देती स्तन्य-सुधा दे उसे निहाल॥
वैसे ही तुम आकर
उसके हरते पाप-ताप त्रयशूल।
हृदय लगा
उल्लासभरे मुख, देते स्नेह-सुधा
सुखमूल॥
करते उसे परम
पावन तुम, पूजनीय सबका सब
ठौर।
धन्य तुम्हारी
दीनबन्धुता! धन्य स्वभाव सकल सिरमौर॥
तब भी मानव दीन न
बनता, नहीं छोड़ता वह अभिमान।
इसीलिये वचित रह
जाता, कृपासुधासे कृपानिधान!
पूर्ण दैन्यका
भाव जगा दो, पूर्ण बना दो अज
अमान।
मातृपरायण
शिशु-सा उसे बना दो, करुणाकर भगवान!
जिससे वह पा जाये
सहज कृपामृत-सागरका संधान।
डूबा उसमें रहे
निरन्तर, करता रहे सदा
रसपान॥
पूज्य
हनुमानप्रसादजी पोद्दार संग्रह:
पद-रत्नाकर
नारायण । नारायण
। नारायण । नारायण ।
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