Friday 29 January 2016

प्रिये! तुहारी महान महिमा मन-वाणी से परे अनन्त।

।। श्री हरि ।।

प्रिये! तुहारी महान महिमा मन-वाणी से परे अनन्त।
लाख देव-जीवनमें गानेपर भी कहीं न आता अन्त॥
दिव्य रूप-सौन्दर्य, भाव, गुण, दिव्य-मधुर माधुर्य महान।
पूर्ण अनन्त सहज पावन तुम, इन सबकी अनन्त हो खान॥
तुहें दीखता किंतु न निजमें तनिक रूप, गुण, भाव, महव।
यह है शुचितम दैन्य प्रेम-पावन का, जो स्वाभाविक तव॥
देती रहती मुझे अमित सुख नित्य-निरन्तर परम उदार।
होता कभी विराम न पलभर बहती नित्य अमृत रस-धार॥
सहज समर्पण किया सहित मन-बुद्धि दिव्य आत्मा सर्वस्व।
रखा एक मेरी स्मृति को मेरे सुखको ही बना निजस्व॥
सतत दे रही रत्न दिव्य सुख नित्य नवीन, नवीन प्रकार।
घटता नहीं तथापि तुहारा रंचक दिव्य रत्न-भण्डार॥
पर न देखती, नहीं जानती इस अनवरत दानकी बात।
वस्तु-योग्यता हीन-दीन लखती रहती निजको दिन-रात॥
मिलता तुमसे मुझे अनोखा सुख, मिलता नित नव रस-भाव।
बढ़ता ऋण, पर बढ़ता तुमसे नित नव सुख पानेका चाव॥
मूल-व्याज दोनों नित बढ़ते-यों नित ऋण बढ़ रहा अपार।
सदा रहूँगा ऋणी तुहारा मैं प्रियतमे! जीवनाधार॥

पदरत्नाकर

नारायण । नारायण ।

Wednesday 27 January 2016

मोहन तें माटी क्यों खाई।

नारद बाबा कही वा दिनाँ, ब्रज की अति मीठी माटी।
तातैं चाखन कौं मैया ! रसना सौं रही तनिक चाटी।।

सबरे बोलत झूठ, सुनौ, मैं नायँ कबहुँ खाई माटी।
तुहूँ रही पतियाय इनहि, यासौं न बात नैकहुँ काटी।।

मानि लईं तूनैं इनकी नकली बातैं सबरी खाँटी।
यासौं पकरि मोय डरपावति, लै अपने कर में साँटी।।

काँपि रह्यौ डर सौं मैं, तौहू आँखि तरेरि रही डाँटी।
मैया ! तू क्यौं भई निरदई, कैसें तेरी मति नाठी।।

खोल दऊँ मुख, देखि अबहिं तू, नैकु कतहूँ जो होय माटी।
का जगात, जब डारि दई मैंने अपनी सबरी छाटी।।

(पद रत्नाकर)

मोहन तें माटी क्यों खाई।
ठाडे ग्वाल कहत सब बालक जे तेरे समुदायी।।

मुकरि गये में सुनी न देखी झूठेई आनि बनाई।
दे प्रतीति पसारी वदन तब वसुधा दरसाई।।

मगन भई जसुमति मुख चितवन ऐसी बात उपजाई।
सूरदास उर लाइ लालको नोन उतारत राइ।।

Sunday 24 January 2016

थोड़ा देता है ज्यादा देता है,

थोड़ा देता है ज्यादा देता है,
हमको तो जो कुछ भी देता कान्हा देता है |

मांग लो दरबार से ये बहुत बड़ा दानी,
ऐसा मौका मतना चूको मत कर नादानी,
सब कुछ देता है ये कुछ नहीं लेता है |
हमको तो जो कुछ भी देता कान्हा देता है ||

हाजरी दरबार की मैं रोज लगाता हूँ,
सांवरिये का दर्शन करके शीश नवाता हूँ,
क्या~क्या देता है ये क्या नहीं देता है |
हमको तो जो कुछ भी देता कान्हा देता है ||

यशोमती का लाडला मैथुरावाला है,
दीन दुखी को गले लगाता मुरलीवाला है,
खुशियाँ देता है गम हर लेता है |
हमको तो जो कुछ भी देता कान्हा देता है ||

जय श्री कृष्ण राधे राधे

ओ पालनहारे निरगुन और न्यारे तुम्हारे बिन हमारा कोई नहीं...

ओ पालनहारे निरगुन और न्यारे तुम्हारे बिन हमारा कोई नहीं...

हमारी उलझन सुलझाओ भगवन तुम्हई हमको ही संभालो
तुम्हई हमरे रखवाले तुम्हारे बिन हमारा कोई नहीं...

ओ पालनहारे निरगुन और न्यारे तुम्हारे बिन हमारा कोई नहीं...

चंदा में तुम्हई तो भरे हो चाँदनी सूरज में उजाला तुम्हई से
ये गगन है मगन तुम्हई तो दीये हो ये तारे
भगवन ये जीवन तुम्हई न सँवारोगे तो क्या कोई सँवारे...

ओ पालनहारे निरगुन और न्यारे तुम्हारे बिन हमारे कोई नहीं...

जो सुनो तो कहें प्रभुजि हमारी है बिनती
दुखी-जन को धीरज दो हारे नहीं वो कभी दुःख से
तुम निरबल को रक्षा दो रह पाये निरबल सुख से
भक्ती को शक्ती दो
जग के जो स्वामी हो इतनी तो अरज सुनो
हैं पथ में अंधियारे दे दो वरदान में उजियारे...

ओ पालनहारे निरगुन और न्यारे तुम्हारे बिन हमारा कोई नहीं.....

~~~ जय श्री कृष्णा ~~~
~~~ राधे राधे ~~~

मेरे हे जीवन-जीवन! मेरे हे जीवनके रस!

मेरे हे जीवन-जीवन! मेरे हे जीवनके रस!
मेरे हे भीतर-बाहर! मेरे हे केवल सरबस!
मैं नहीं जानती कुछ भी अतिरिक्त तुहारे प्रियतम!
मैं नहीं मानती कुछ भी बस, तुहें छोडक़र प्रियतम!
हर सभी पृथकता, मेरे रह गये एक तुम-ही-तुम।
कर आत्मसात्‌ ’मैं-मेरा’ सब कुछ अपनेमें ही तुम॥
अब तुहीं सोचते-करते सब ’मैं’ ’मेरा’ मुझमें बन।
नित तुहीं खेलते रहते बन मेरे चिा-बुद्धि-मन॥
आनन्द मुझे तुम देते नित बने पृथक्‌ लीलामय!
अपनेमें अपनेसे ही तुम होते प्रकट कभी लय॥
नित मिलन बिरहकी लीला चलती यों सतत अपरिमित।
होते सब खेल अनोखे नित सुख-वाछासे विरहित॥
मैं कहूँ अलग क्या प्रियतम! कहते हो तुम ही सब कुछ।
सुनते भी तुम ही हो सब, तुम ही हो, मैं हूँ जो कुछ॥
बैठी निकुजमें आली! थी ध्यानमग्र सब कुछ तज।
एकान्त हृदय-मन्दिरमें यों थी मैं रही उन्हें भज॥
मेरे मनकी ये बातें सुनकर वे प्यारे मोहन।
हो गये प्रकट यमुना-तटकी उस निकुजमें सोहन॥
उरसे अन्तर्हित सहसा हो गये प्राण जीवनधन।
व्याकुलता उदय हु‌ई अति, खुल गये नेत्र बस, तत्क्षण॥
वे देख रहे थे मुझको रसभरे दृगोंसे अपलक।
मिलनेकी उठी हृदयमें अत्यन्त तीव्रतम सु-ललक॥
बस, मुझे लगा ली उरसे निज स्वयं भुजा‌ओंमें भर।
रसभरे दृगोंसे आँसू बह चले प्रेमके झर-झर॥

पदरत्नाकर

नारायण । नारायण ।

Friday 22 January 2016

विनय हमारी है

विनय हमारी है देवा सुनलो
श्रद्धा से चरणों में हम झुके है |
कर में सुमन है मन में लगन है
करता नमन है तेरी शरण है
आशीष दे सिर पे हाथ रख दो |
उषा की बेला मैँ हूं अकेला
जब हो सवेरा लग जाये मेला
पूजा की थाली स्वीकार कर लो |
मथुरा निवासी हे अविनाशी
ज्योति प्रकाशि हे ज्ञान राशि
दया की प्रतिमा तेजोमयी है |
हे मेरे स्वामी हे मेरे देवा
तुम्हारे चरणों में है मेरी सेवा
हृदय पुकारे करो ना न्यारा |

सर्वे हरु भक्तो को...


|| जय श्री कृष्णा ||
|| राधे राधे ||

Sunday 10 January 2016

आते हो तुम बार-बार प्रभु !

आते हो तुम बार-बार प्रभु ! मेरे मन-मन्दिरके द्वार।
कहते-’खोलो द्वार, मुझे तुम ले लो अंदर करके प्यार’॥

मैं चुप रह जाता, न बोलता, नहीं खोलता हृदय-द्वार।
पुनः खटखटाकर दरवाजा करते बाहर मधुर पुकार॥

‘खोल जरा सा’ कहकर यों-’मैं, अभी काममें हूँ, सरकार।
‘फिर आना’-झटपट मैं घरके कर लेता हूँ बंद किंवार॥

फिर आते, फिर मैं लौटाता, चलता यही सदा व्यवहार।
पर करुणामय ! तुम न ऊबते,तिरस्कार सहते हर बार॥

दयासिन्धु ! मेरी यह दुर्मति हर लो,करो बड़ा उपकार।
नीच-‌अधम मैं अमृत छोड़, पीता हालाहल बारंबार॥

अपने सहज दयालु विरदवश, करो नाथ ! मेरा उद्धार।
प्रबल मोहधारामें बहते नर-पशुको लो तुरत उबार॥

'पद-रत्नाकर ' पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
Right arrow with hook श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार भाईजी

Monday 4 January 2016

मेरे कान्हा ने सदा साथ निभाया

मेरे कान्हा ने सदा साथ निभाया , यही काफी है मेरे लिए
आस्था मेरी को गोपाल ने बचाया, यही काफी है मेरे लिए

कन्हैया मुट्ठी भर आसमान 'वो भी , फिसलता जा रहा था
बाँके तू उम्मीदें कुछ बचा लाया , यही काफी है मेरे लिए

क़दमों के नीचे से ज़मीन , देखो खिसकती जा रही थी मेरी
बुनियाद मेरी बनवारी बचा लाया , यही काफी है मेरे लिए

प्रभु अपनों ने जब - जब देखा था , हिकारत की नजर से मुझे
कृष्णा नाम का चिराग रोशनी लाया , यही काफी है मेरे लिए

भक्ति और धर्म करना , अब गुनाह सा हो गया है 'कमल'
'गिरधारी' मैं तेरा दास बन पाया , यही काफी है मेरे लिए

Sunday 3 January 2016

अब और ना तड़पाओ सांवरे.

अब और ना तड़पाओ सांवरे...तेरे भरोसे हैं नाथ...
...अब और ना तड़पाओ सांवरे दूर ना तुम जाओ...तेरे भरोसे हैं नाथ...
...एक बार चले आओ सांवरे...यूँ ना बिसराओ...तेरे भरोसे हैं नाथ...

इस जीवन नैया को...भव पार करा दो मेरे नाथ...
विषयों के तूफाँ से...इसको बचालो मेरे नाथ...
कहीं डूब ना जाये...थाम लो आकर के पतवार...
...तेरे भरोसे हैं नाथ...

उस पार बैठे हो...क्यूँ भूल कर हमको...
हम भी तुम्हारे हैं...क्यों भूल गये हमको...
कबसे तुम्हारी राह निहारें...बैठे हम इस पार...
...तेरे भरोसे हैं नाथ...

तुम्हें छोड़ के बोलो...जांये कहाँ हम नाथ...
इस दर्दे दिल का हाल...किसको सुनायें हम नाथ...
अरजी हमारी तुमसे...सुन भी लो मेरे सरकार...
...तेरे भरोसे हैं नाथ...

.....अब और ना तड़पाओ सांवरे...तेरे भरोसे हैं नाथ...
...अब और ना तड़पाओ सांवरे दूर ना तुम जाओ...तेरे भरोसे हैं नाथ...
...एक बार चले आओ सांवरे...यूँ ना बिसराओ...तेरे भरोसे हैं नाथ...

Saturday 2 January 2016

कहा मिलेंगे श्याम

कहा मिलेंगे श्याम
बताओ कहाँ मिलेगा श्याम.......!!
बताओ कहाँ मिलेगा श्याम,
चरण पादुका लेकर सब से पूछ रहे रसखान॥
बताओ कहाँ मिलेगा श्याम....
वो नन्ना सा बालक है, सांवली सी सूरत है,
बाल घुंघराले उसके, पहनता मोर मुकुट है।
नयन उसके कजरारे, हाथ नन्ने से प्यारे,
बांदे पैजन्यिया पग में, बड़े दिलकश हैं नज़ारे।
घायल कर देती है दिल को, उसकी इक मुस्कान॥
बताओ कहाँ मिलेगा श्याम...
समझ में आया जिसका पता तू पूछ रहा है,
वो है बांके बिहारी, जिसे तू ढूंढ रहा है।
कहीं वो श्याम कहाता, कहीं वो कृष्ण मुरारी,
कोई सांवरिया कहता, कोई गोवर्धन धारी।
नाम हज़ारो ही हैं उसके कई जगह में धाम॥
बताओ कहाँ मिलेगा श्याम...
जाग कर रात बिताई भोर होने को आई,
तभी उसके कानो में कोई आहट सी आई।
वो आगे पीछे देखे, वो देखे दाएँ बाएँ,
वो चारो और ही देखे, नज़र कोई ना आए।
झुकी नज़र तो कदमो में ही बैठा नन्हा श्याम॥
बताओ कहाँ मिलेगा श्याम..
              राधे-राधे

Friday 1 January 2016

हे मन ! कृपालु श्रीरामचंद्रजी का भजन कर

श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं ।
नवकंज लोचन, कंजमुख कर, कंज पद कंजारुणं ॥१॥

व्याख्या - हे मन ! कृपालु श्रीरामचंद्रजी का भजन कर...वे संसार के जन्म-मरण रूप दारुण भय को दूर करने वाले है...उनके नेत्र नव-विकसित कमल के समान है...मुख-हाथ और चरण भी लालकमल के सदृश हैं ॥१॥

कंदर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरद सुन्दरम ।
पट पीत मानहु तडित रूचि-शुची नौमी, जनक सुतावरं ॥२॥

व्याख्या - उनके सौंदर्य की छ्टा अगणित कामदेवो से बढ्कर है...उनके शरीर का नवीन नील-सजल मेघ के जैसा सुंदर वर्ण है...पीताम्बर मेघरूप शरीर मे मानो बिजली के समान चमक रहा है...ऐसे पावनरूप जानकीपति श्रीरामजी को मै नमस्कार करता हू ॥२॥

भजु दीनबंधु दिनेश दानव दैत्य वंश निकन्दनं ।
रघुनंद आनंद कंद कोशल चन्द्र दशरथ नंदनम ॥३॥

व्याख्या - हे मन! दीनो के बंधू, सुर्य के समान तेजस्वी , दानव और दैत्यो के वंश का समूल नाश करने वाले,आनन्दकंद, कोशल-देशरूपी आकाश मे निर्मल चंद्र्मा के समान, दशरथनंदन श्रीराम का भजन कर ॥३॥

सिर मुकुट कुंडल तिलक चारू उदारु अंग विभुषणं ।
आजानुभुज शर चाप-धर, संग्राम-जित-खर दूषणं ॥४॥

व्याख्या- जिनके मस्तक पर रत्नजडित मुकुट, कानो मे कुण्डल, भाल पर तिलक और प्रत्येक अंग मे सुंदर आभूषण सुशोभित हो रहे है...जिनकी भुजाए घुटनो तक लम्बी है. जो धनुष-बाण लिये हुए है...जिन्होने संग्राम मे खर-दूषण को जीत लिया है ॥४॥

इति वदति तुलसीदास, शंकर शेष मुनि-मन-रंजनं ।
मम ह्रदय कंज निवास कुरु, कामादि खल-दल-गंजनं ॥५॥

व्याख्या - जो शिव, शेष और मुनियो के मन को प्रसन्न करने वाले और काम , क्रोध , लोभादि शत्रुओ का नाश करने वाले है...तुलसीदास प्रार्थना करते है कि वे श्रीरघुनाथजी मेरे ह्रदय कमल मे सदा निवास करे ॥५॥

मनु जाहि राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर सावरो ।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो ॥६॥

व्याख्या-जिसमे तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से ही सुंदर सावला वर (श्रीरामचंद्रजी) तुमको मिलेगा...वह दया का खजाना और सुजान (सर्वग्य) है...तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है ॥६॥

एही भांति गौरी असीस सुनी सिय सहित हिय हरषीं अली।
तुलसी भावानिः पूजी पुनि-पुनि मुदित मन मंदिर चली ॥७॥

व्याख्या - इस प्रकार श्रीगौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सभी सखिया ह्रदय मे हर्सित हुई...तुलसीदासजी कहते है-भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चली ॥७॥

जानी गौरी अनुकूल, सिय हिय हरषु न जाइ कहि ।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ॥८॥

व्याख्या - गौरीजी को अनुकूल जानकर सीताजी के ह्रदय मे जो हरष हुआ वह कहा नही जा सकता...सुंदर मंगलो के मूल उनके बाये अंग फडकने लगे ॥८॥

गोस्वामी तुलसीदास.

राधारमण , श्यामसुंदर, बांकेबिहारी

राधारमण , श्यामसुंदर, बांकेबिहारी
किसी की भी सूरत न हमने निहारी.
गुजरते-गुजरते साल ही गुजर गया
पर हो न पायी देखो मुलाकात हमारी.
कहते हैं सब मन में बसाओ वृन्दावन
मन से ही यात्रा और मन से ही दर्शन.
पर इन आँखों को मै समझाऊं कैसे
करे जो हर क्षण,ब्रज दर्शन को क्रंदन.
मलिन मन ठहरे नही जो करूं चिंतन
ह्रदय में भी न कोई भाव न है  भक्ति.
न ही है प्रेम प्रभु से, न ही लाड प्रभु से
उस पर  जगत से है इतनी आसक्ति.
ऐसे में तो दर्शन बिना न काम बने
क्योंकि संस्कारों  मै बहुत ही नीचे हूँ.
बड़ी-बड़ी साधना न हो पाती मुझसे
क्योंकि भक्ति में भी बहुत पीछे हूँ.
इस नए साल में एक उपहार दे दो
कि तेरे ब्रज में कुछ दिन बीत जाए.
राधारमण, श्यामसुंदर, बांकेबिहारी
इन नयनों में एकबार फिर से समाये