Wednesday 27 January 2016

मोहन तें माटी क्यों खाई।

नारद बाबा कही वा दिनाँ, ब्रज की अति मीठी माटी।
तातैं चाखन कौं मैया ! रसना सौं रही तनिक चाटी।।

सबरे बोलत झूठ, सुनौ, मैं नायँ कबहुँ खाई माटी।
तुहूँ रही पतियाय इनहि, यासौं न बात नैकहुँ काटी।।

मानि लईं तूनैं इनकी नकली बातैं सबरी खाँटी।
यासौं पकरि मोय डरपावति, लै अपने कर में साँटी।।

काँपि रह्यौ डर सौं मैं, तौहू आँखि तरेरि रही डाँटी।
मैया ! तू क्यौं भई निरदई, कैसें तेरी मति नाठी।।

खोल दऊँ मुख, देखि अबहिं तू, नैकु कतहूँ जो होय माटी।
का जगात, जब डारि दई मैंने अपनी सबरी छाटी।।

(पद रत्नाकर)

मोहन तें माटी क्यों खाई।
ठाडे ग्वाल कहत सब बालक जे तेरे समुदायी।।

मुकरि गये में सुनी न देखी झूठेई आनि बनाई।
दे प्रतीति पसारी वदन तब वसुधा दरसाई।।

मगन भई जसुमति मुख चितवन ऐसी बात उपजाई।
सूरदास उर लाइ लालको नोन उतारत राइ।।

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