Saturday 31 October 2015

हे श्रीरामजी

तऊ न मेरे अघ - अवगुन गनिहैं ।
जौ जमराज काज सब परिहरि, इहै ख्याल उर अनिहैं ॥१॥
चलिहैं छूटि पुंज पापिनके, असमंजस जिय जनिहैं ।
देखि खलल अधिकार प्रभूसों ( मेरी ) भूरि भलाई भनिहैं ॥२॥
हँसि करिहैं परतीति भगतकी भगत - सिरोमनि मनिहैं ।
ज्यों त्यों तुलसिदास कोसलपति अपनायेहि पर बनिहैं ॥३॥
हे श्रीरामजी ! यदि यमराज सब कामकाज छोड़कर केवल मेरे ही पापों और दोषोंके हिसाब - किताबका खयाल करने लगेंगे, तब भी उनको गिन नहीं सकेंगे ( क्योंकि मेरे पापोंकी कोई सीमा नही है ) ॥१॥
( और जब वह मेरे हिसाबमें लग जायँगे, तब उन्हें इधर उलझे हुए समझकर ) पापियोंके दल - के - दल छूटकर भाग जायँगे । इससे उनके मनमें बड़ी चिन्ता होगी । ( मेरे कारणसे ) अपने अधिकारमें बाधा पहुँचते देखकर ( भगवानके दरबारमें अपनेको निर्दोष साबित करनेके लिये ) वह आपके सामने मेरी बहुत बड़ाई कर देंगे ( कहेंगे कि तुलसीदास आपका भक्त है, इसने कोई पाप नहीं किया, आपके भजनके प्रतापसे इसने दूसरे पापियोंको भी पापके बन्धनसे छुड़ा दिया ) ॥२॥
तब आप हँसकर अपने भक्त यमराजका विश्वास कर लेंगे और मुझे भक्तोंमें शिरोमणि मान लेंगे । बात यह है कि हे कोसलेश ! जैसे - तैसे आपको मुझे अपनाना ही पड़ेगा ॥३॥
हरी शरणम्

जन्म तेरा बातों मे बीत गयो

जन्म तेरा बातों मे बीत गयो
जन्म तेरा बातों में बीत गयो , तूने कबहूँ न कृष्ण कह्यो ॥
पाँच बरसका भोला- भाला , अब तो बीस भयो ,
मकरपचीसी माया कारण , देस बिदेस गयो ॥१॥
जनम तेरा.....||
तीस बरस की अब मति उपजी , लोभ बढ़े  नित नयो ,
माया जोड़ी लाख करोरी , अजहुँ न तृप्त भयो ॥२॥
जनम तेरा.....||
वृद्ध भयो तब आलस उपजी, कफ नित कंठ रह्यो,
संगत कबहुँ न कीनी तूने , व्यर्था में जन्म गयो ॥३॥
जनम तेरा.....||
ये संसार मतलब का लोभी , झूठा ठाठ रचयो ,
कहत कबीर समझ मन मूरख , तू क्यूं भूल गयो ॥४॥
जनम तेरा.....||

नाथ मैं थारो जी थारो

नाथ मैं थारो जी थारो
चोखो, बुरो, कुटिल अरु कामी, जो कुछ हूँ सो थारो ॥
बिगड्यो हूँ तो थारो बिगड़्यो, थे ही मनै सुधारो ।
सुधर्‌यो तो प्रभु सुधर‌यो थारो, थाँ सूँ कदे न न्यारो ॥
बुरो, बुरो, मैं भोत बुरो हूँ, आखर टाबर थारो ।
बुरो कुहाकर मैं रह जास्यूँ, नाँव बिगड़सी थारो ॥
थारो हूँ, थारो ही बाजूँ, रहस्यूँ थारो, थारो !! ।
आँगळियाँ नुह परै न हौवै, या तो आप विचारो ॥
मेरी बात जाय तो जाओ, सोच नही कछु म्हारो ।
मेरे बड़ो सोच यो लाग्यो बिरद लाजसी थारो ॥
जचै जिसतराँ करो नाथ ! अब, मारो चाहै त्यारो ।
जाँघ उघाड्याँ लाज मरोगा, ऊँडी बात बिचारो ॥

जय जय श्री राधे!

काम - क्रोध - मद - मिट गए , गई आसक्ति छूट।

घर में रुचि कुछ अधिक है , काम - क्रोध का जोर।
वृद्धावस्था आ गई , पर न चले हरि ओर।।
तो , लिख पल्लू बाँध लो ,कि अब न मिले नरचाम।
क्योंकि भजन बिन सद् गति , हो नहीं "रोटीराम "।।
यम कहता तुमने नहीं , मान दिया नरदेह।
फंसे रहे संसार में , पुत्र - पौत्र स्नेह।।
कैसे ? फिर दे दूँ तुम्हें , सद् गति बिन सत्कर्म।
सद् गति को तो चाहिए , संग्रह मानव धर्म।।

( लेकिन इसके विपरीत )
काम - क्रोध - मद - मिट गए , गई आसक्ति छूट।
जिव्हा को वश कर लिया , थम गईं माथाकूट।।
तो तुमसे लिव जाएगा , अब ईश्वर का काम।
इन रहते सम्भव नहीं , भक्ति " रोटीराम "।।
ऐसा गीता में कहा , स्वयं कृष्ण भगवान।
और न मिलता शास्त्र में , ऐसा कहीं प्रमान।।
कि रहते इनके ले सका , हो कोई भगवन्नाम।
और लिया उसको बुला , हरि ने अपने धाम।।

( गीता श्लोक 2 / 71 )
विहाय कामान्यः सर्वान्पु मांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकार स शान्ति मधिगच्छति।।

अर्थ - जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग करके स्पृहा रहित , ममता रहित , और अहंता रहित हो कर आचरण करता है , वही परमशांति को प्राप्त होता है ।

व्याख्या - जब मनुष्य ममता - कामना - राग - द्वेष अहंता से छूट जाता है , तब उसे अपने अंदर नित्य - निरन्तर स्थित रहने वाली शांति का अनुभव होता है । यानी मूल में अहंता ही मुख्य रही । लेकिन सबका त्याग कर देने पर भी अहंता तो फिर भी बच जाती है । लेकिन अगर अहंता का त्याग कर दिया जाए तो , बाकी सब का त्याग अपने आप हो जाता है ।
अहंता से ही काम - क्रोधादि आदि विकारों का जन्म होता है ।
हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है ।
चिन्मय सत्तामात्र में ममता - अहंता आदि विकारों का प्रश्न ही पैदा नहीं होता । इस भूल को मिटाने  की जिम्मेदारी हम पर ही है , तभी तो भगवान इनका त्याग करने की बात करते हैं । अन्यथा तो , जो है ही नहीं , उसका त्याग तो स्वतः सिद्ध है , और जो स्वतः सिद्ध है, उसे ही तो प्राप्त करना है । नया निर्माण कुछ नहीं करना है । नया - नया निर्माण हीै तो हमारे बन्धन और दुखों का कारण बनता है ।

Thursday 29 October 2015

करूँ बारम्बार प्रणाम, बारम्बार प्रणाम.

"इतीदृक् स्व-लीलाभिर् आनन्द-कुण्डे स्व-घोषं निमज्जन्तम् आख्यापयन्तम्
तदीयेषित-ज्ञेषु भक्तैर् जितत्वं पुनः प्रेमतस् तं शतावृत्ति वन्दे ॥ ३॥"
बाल लीलाओं के आनंद सागर में नित खाए हिलोरे गोकुलवासी.
मिल गया उन्हें जीवन का ध्येय क्यों जाए फिर वे तीरथ काशी.
ज्ञानिओं के लिए हैं जो परमात्मा यहाँ तो हैं नन्द-यशोदा का लाला
ढूंढें योगी जिन्हें हिमालय पे जाकर बनके बैठा वो गोकुल का ग्वाला.
व्रज रज में खेले सृष्टि का स्वामी माखन चुराए और पकड़ा भी जाए.
परमब्रह्म परमेशवर स्वराट देखो कैसे मैया के डर से आँसू बहाए .
ये तो व्रज के प्रेमी भक्त का पाश जो भुला दे भगवान को भगवत्ता.
कैसे नचाये उन्हें इशारे पे अपने जिनकी मर्जी बिना न हिलता पत्ता.
अजित को जीतने की ये कला  व्रजवासियों को खूब आती है.
निश्छल निःस्वार्थ प्रेम की डोर परम स्वतंत्र को भी बाँध जाती है.
ऐश्वर्य, ज्ञान, भय, आदर से नही निर्मल प्रेम से बस प्रभु को काम.
ऐसे भक्त वत्सल भगवान् को मैं करूँ बारम्बार प्रणाम, बारम्बार प्रणाम.

विषजलाप्ययाद्व्यालराक्षसा- द्वर्षमारुताद्वैद्युतानलात्

"विषजलाप्ययाद्व्यालराक्षसा-      द्वर्षमारुताद्वैद्युतानलात् ।
वृषमयात्मजाद्विश्वतोभया-     दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ॥ ३॥"

कालिया के विष से बचाया
फिर विरह विष से क्यों तड़पा रहे हो.
क्यों बचाया इंद्र की वर्षा से हमें
जब अपने वियोग में आज जला रहे हो.

अघासुर बना लेता हमें आहार या
तृणावर्त ही अपनी आंधी में उड़ा ले जाता.
फिर तुम्हारे दर्शन बिना जीने का
यह दुसह्य पल तो नही जीवन में आता.

अरिष्टासुर हो या व्योमासुर
किसी की आंच न हम पर आने दी.
आज उसी तरह अपने दर्शन से
आयी है बारी फिर हमें बचाने की.

अग्नि से जैसे बचाया था स्वामी
इस विरह की ताप को भी शातल कर दो.
ओझल हुई अपनी सांवरी सूरत को
प्रभु दासियों पर दया कर प्रकट कर दो.

अब तक जब बचाया हमें फिर
आज इस तरह क्यों मार रहे हो.
आपके बिना हमारा अस्तित्व नही
यह तो बखूबी आप जान रहे हो.

जरा इतना बता दे कान्हा, तेरा रंग काला क्यों

जय श्री राधे,जय श्री कृष्णा""~~~          "
       जरा इतना बता दे कान्हा,
                          तेरा रंग काला क्यों ,
          काला होकर भी,
                          जग से निराला क्यों |"
        मैंने काली रात में जन्म लिया,
        और काली गाय का दूध पिया,
        मेरी कमली भी काली है,
                            इसीलिये काला हूँ |
        सखी रोज घर में बुलाती हैं,
        और माखन बहुत खिलातीं हैं,
        सखियों का दिल काला,
                             इसीलिये काला हूँ |
        सावन में बिजली कड़कती है,
        बादल भी बहुत गरजते हैं,
        बादल का रंग काला,
                             इसीलिये काला हूँ |
       सखी नयनों में कजरा लगाती है,
       और नयनों में मुझे बिठाती हैं,
       कजरे का रंग काला,  
                              इसीलिये काला हूँ |
""जय गोबिंदा,जय गोपाला
                    जय मुरली मनोहर, जय नंदलाला |"

Tuesday 27 October 2015

कह कैसे ? कर पाएगा , यह भवसागर पार।

कह कैसे ? कर पाएगा , यह भवसागर पार।
जबकि मलिन है मन तेरा, शास्त्र विहित आचार।।
शास्त्र विहित व्यक्ति नहीं , कर पाता यह काम।
क्योंकि धर्म नहीं संग हो , उसके " रोटीराम "।।
और धर्म बिन जीव से , होते नहीं सत्कर्म।
नहीं अधर्मी व्यक्ति को , दुष्कर्मों में शर्म।।
कैसे ? फिर होगी तेरी , कह तो , नैय्या पार।
वंचित ही रह जाएगा , प्राप्ति पदारथ चार।।

सो बुद्धि से काम ले , छोड कमाना दाम।
देख बुढापा आ गया , जा जप अब हरिनाम।।
क्योंकि एक हरिनाम ही , जा पाता है संग।
देख मान जा, ले कमा , सही एक यही ढंग।।
दावा है यह शास्त्र का , सौ प्रतिशत हो पार।
मात्र " नाम " ही जीव का , कर पाए उद्धार।।
यमपुर में रोकड नहीं , भक्ति आती काम।।
होना है भवपार तो , कर ले " रोटीराम "।।

यह नरतन वरदान है , हमको श्री भगवान।

यह नरतन वरदान है , हमको श्री भगवान।
दीना है " उनने " हमें , करने को कल्यान।।
सो बिन विलम्ब कर लीजिए , मित्रों यह शुभकाम।
क्योंकि स्वांस गिनके मिलीं , हमको " रोटीराम "।।

( भावार्थ )
 हमारे सभी शास्त्र और सभी सद्संत एक स्वर से,  एक ही बात कहते हैं कि , यह मनुष्य तन ईश्वर ने कृपा करके हमें अपने कल्याण के लिए दिया है,

तुलसीदास जी ने भी लिखा है कि - - - - - - -
 

कबहुँक कर करुणा नर देही ।
देत ईश बिन हेतु सनेही ।।

इस तन की प्राप्ति का एकमात्र हेतु केवल और केवल अपना कल्याण कर लेना , यानी भगवत प्राप्ति है । इस तन के द्वारा संतानोत्पत्ति को शास्त्र मना नहीं करता, शास्त्र तो मना करता है कि , नरतन का उद्देश्य केवल भोग विलास ही नहीं हो जाना चाहिए ।
भोगों के लिए तो पशु शरीर है , इसीलिए तो पशुयोनि को भोग योनि कहा जाता है, भानवतन पाकर भी अगर अपने कल्यान के प्रति सचेत नहीं रहे तो , फिर इस मानव देह की विशेषता ही क्या ? रही ।
शास्त्र ( नीति शतक ) कहता है कि -- - - - -
आहार निद्रा भय मैथुनम् च , सामान्य मेतत् पशु भिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषा मधिको विशेषो , धर्मेण हीनाः पशुभि समानाः ।।

अर्थ - आहार - निद्रा - भय और मैथुन , ये चारों तो पशुओं और मनुष्यों में सामान्य और समान रूप से पाए जाते हैं । पशु भी खाते - पीते हैं , उन्हें भी नींद आती है , भय उन्हें भी सताता है , वे भी सन्तानोत्पत्ति करते हैं , बस मनुष्य में जो विशेषता है , वह केवल एक यही तो है कि , मनुष्य के पास विवेक है । वह धर्म और अधर्म को पहचानता है , अपना भला और बुरा समझता है , पशु नहीं ।
केवल धर्म यानी विवेक ही दोनों को प्रथक - प्रथक करने बाला तत्व है । इसलिए विवेकहीन ( अधर्मी ) पुरुष पशु के समान ही है।
इसलिए विवेकी पुरुष को अपने पारिवारिक जिम्मे निपटा कर समय के रहते अपने कल्याण के लिए भगवत पथ का आश्रय ले लेना चाहिए।

तर्ज-जब रसना हरिगुण गाए,

तर्ज-जब रसना हरिगुण गाए, मन प्रभु चरनन रमजाए
तब इतना समझ लेना, अब हरि से मिलन होगा।
यह नक्की है प्यारे, तेरा जनम सफल होगा ।।।
फिर बरसाने भी जाए, जा चौखट शीश नबाए।
छवि देख हृदय हरषाए,राधे पर बलि बलि जाऐ।
होली छवि मन में लाए,मन मन ही रंग बरसाए।
मन में ही लाठी खाए,इस सुख को आँख बताए।।
गहबरवन जा चिल्लाए,तुम बिन जग रास न आए
तब इतना समझ लेना, अब * * * * * * *
यह नक्की है प्यारे, तेरा * * *

तर्ज - राम सियाराम, सियाराम जय जय राम।

तर्ज - राम सियाराम, सियाराम जय जय राम।
राम सियाराम, सियाराम जय जय राम।।
पर प्रारब्ध चले मम आगे, यह चाहे यम, कहे अभागे।
यह तो तभी कटे रघुराई, जब तुम लो, चरनन लिपटाई।।
राम सियाराम, सियाराम जय जय राम।
राम सियाराम,सियाराम जय जय राम।।
अब मुझको नहीं, धन सुख इच्छा, मतलो अब मम अधिक परीक्षा।
अबतो मम मनुआं यह चाहे,तुमको रोए, तुमको गाए।।
राम सियाराम, सियाराम जय जय राम।
राम सियाराम,सियाराम जय जय राम।।
सो दे दो वह प्रेमाभक्ति, जिसमें ही है, बस वह शक्ति।
जो प्रारब्धों से भिड जाए,काट उन्हें,तुम तक पहुँचाए।।
राम सियाराम, सियाराम जय जय राम।
राम सियाराम,सियाराम जय जय राम।।
अंतिम कृपा करो रघुनंदन, काट फेंकिए घर के बंधन।
जिससे तुम गोदी सो जाऊँ,तुममें ही, बस लय हो जाऊँ।।
राम सियाराम, सियाराम जय जय राम।
राम सियाराम,सियाराम जय जय राम।।

Thursday 22 October 2015

यौवन भोगों में गया , प्रौढापन घर फिक्र ।

यौवन   भोगों    में   गया  ,  प्रौढापन    घर   फिक्र ।
        बृद्ध  हुआ  तब  भी नहीं  , हरि सुमिरन  की जिक्र।।
           तो कह  तो  सही , किस  उम्र में, जापेगा हरिनाम।
             मिल तो नहीं गई अमरता , तुझको  " रोटीराम "।
     या  फिर  शक   है  मृत्यु  में , या  यम  लिया  पटाय।
       ले  नोटों  की  गड्डियां  , आकार  भी  फिर  जाय।।
         अगर नहीं तो क्यों? भला , यूँ  रहा  स्वाँस गंवाय।
           वहाँ काम नहीं गड्डियां ,हरि सुमिरन ही आय।।

  चारों    तरफा    घर   पडे  ,  बृद्ध   झेल   रहे   मार।
        तानों की और व्यंग्य की , कभी  - कभी फटकार।।
           फिर भी ज्यादातर नहीं , अक्ल  से  ले रहे काम।
             सह लेते  चुपचाप  सब , हो  आसक्ति  गुलाम।।
    यही   भूल   देगी   दिला  ,  उनको    फिर    भवपीर।
       वे  लिख, नहीं  जा  पाऐंगे , खुद ,खुद की तकदीर।।
         काश ! अक्ल से काम ले, वे जा जपते कहीं "नाम "
           तो  पा  जाते  सद् गति , नर्क  न  " रोटीराम "।।

Tuesday 20 October 2015

भाग्य स्वयं का स्वयं खुद , लिखता है इन्सान ।

भाग्य स्वयं का स्वयं खुद , लिखता है इन्सान ।
ना तो बृह्माजी लिखें , और न आ भगवान।।
जो जैसे इस जन्म में , कर जाता है काम।
उसके ही अनुरूप विधि , लिख भेजे " रोटीराम "।।
  चार कदम भी चल पडें , गर हम " उनकी " ओर।
" उन्हें " बनालें चन्द्रमा , खुद बन जायँ चकोर।।
तो " वे " भी नहीं रह सकें , आऐं नंगे पांव।
क्या ? ध्रुव को अरु द्रोपदी , नहीं आए "रोटीराम "
  काया सुख रस - भोग में , आज भ्रमित संसार।
ठान के खुद से दुश्मनी , भूला सद् व्यवहार।।
पाने को परमात्म सुख , करे न कोई काम ।
भूल चुका मैं मनुज हूँ , पशु नहीं " रोटीराम "।।
  हरि की लीला - रूप गुण , जो न कर रहे याद।
वे मूरख यह स्वाँस धन , कर रहे हैं बर्बाद।।
पा नरतन जैसी निधि , गर न किए सत्काम।
तो इससे बढकर मूर्खता , क्या ? हो "रोटीराम "।

Sunday 18 October 2015

हरि के नाम बिना झूठे सगल पसारे :

हरि के नाम बिना झूठे सगल पसारे :
हरि नाम सुमिरन बिना सारी क्रियाएँ व्यर्थ हैं झूठे हैं |
हे मुरारी तेरा नामजप ही मेरे लिये आरती है और स्नान भी तेरा ही नाम हैै....
पूजा का आसन तेरा नाम है प्रभु...
नाम ही चंदन घिसने वाला चकला(पत्थर) है 
और तेरा नाम ही, हे मुरारी, केसर है जिसे मैने तुझ पर छिड.का है....
नाम जल से तेरे नाम रूपी चंदन को मैने आपको लगाया है 
मेरे प्रभु....
मैने तेरे नाम को दीपक बनाकर उसमें नाम की बाती लगाई है...
प्रभु तेरे नाम को तेल बनाकर मैने पूजा की ज्योति जलाई है जिससे सब लोकों में ग्यान का प्रकाश फैले और अंधकार दूर हो गया है...
हे मुरारी तेरा नाम ही धागा है और फूलमाला भी तेरा नाम ही तो
है वरना फूल वगैरह सब भँवरों के जूठे किये हुए हैं 
इसलिये तुझे तेरे नाम रूपी फूल अर्पण किये हैं....
हे मेरे नाथ सब कुछ तेरा ही दिया हुआ है, 
तुझे मैं क्या अर्पण कर सकता हूँ.....
तेरा ही नाम चँवर है तू ही अपने को चँवर ढुलाने वाला है....
मैं तो कुछ भी नहीं हूँ...
सभी पुराण,  तीर्थं और चारों धाम तेरे नाम में ही समाये हैं...
तेरा नाम ही तो तेरी आरती की सारी सामग्री है....मेरे भगवन!
तेरे नाम को ही मैं भोग बनाकर तुझे चढा रहा हूँ....
हे मुरारी तेरे नाम के जप के बिना सभी कुछ थोथा है व्यर्थ है..

Tuesday 13 October 2015

उड़ा जा रहा प्रकृति पर रथ - विमान आकाश

उड़ा जा रहा प्रकृति पर रथ - विमान आकाश |
मानो हैं हय चल रहे , हरि - पग - तल - रथ - रास ||

दिव्य रत्नमणि - रचित अति द्युतिमय विमल विमान |
चिदानन्दघन सत् सभी वस्तु - साज - सामान ||

अतुल मधुर सुन्दर परम रहे विराजित श्याम |
नव - नीरद - नीलाभ - वपु , मुनि - मन - हरण ललाम ||

पीत वसन , कटि किंकिणी , तन भूषण द्युति - धाम |
कण्ठ रत्नमणि , सौरभित सुमन - हार अभिराम ||

मोर - पिच्छ - मणिमय मुकुट , घन घुँघराले केश |
कर दर्पण - मुद्रा वरद विभु - विजयी शोवर वेश ||

शोभित कलित कपोल अति अधर मधुर मुसुकान |
पाते प्रेम - समाधि , जो करते नित यह ध्यान ||

जय जय श्रीराधे ! जय जय श्रीराधे ! जय जय श्रीराधे !
पद सँख्या —{ १७३ }

Sunday 11 October 2015

॥सांझी के पद॥

   

केसर फूल बीनत राधा गोरी।
भोरी संग सहचरी बारी।

जिनके अंग सुगंध केसर की
अरु केसर रंग सारी॥

जिनके तन वरन केसर कौ
केसर पंखुरी अंगुरिन पर बारी।

नख प्रतिबिंब देख केसर को
भूल गई सुध सारी॥

बन ही बन आये गिरिधर जहाँ
बिहार करत सुकुमारी।

जीवन गिरिधर सखी रूप धरि
कल करत मनुहारी॥

॥श्रीराधारमणाय समर्पणं॥

हे राधे ,हे वृषभानु ललि...

हे राधे ,हे वृषभानु ललि...
तुम बिन जीवन क्या जीवन है !

जिस जीवन की तुम जीवन हो,
वो जीवन ही वृन्दावन है !!

हे राधे, हे वृषभानु ललि..
तुम बिन जीवन क्या जीवन है !

हे परमेश्वरी, हे सर्वेश्वरी ,तू ब्रजेश्वरी,
आनंदघन है..

हे कृपानिधे! हे करुणानिधि!
जग जीवन की जीवन धन है!

हे राधे ,हे वृषभानु ललि...
तुम बिन जीवन क्या जीवन है !!

दुर्गमगति जो योगेन्द्रों को,
वही दुर्लभ ब्रह्म चरण दाबे..

रसकामधेनु तेरी चरण धूल,
हर रोम लोक प्रगटावन है !

हे राधे ,हे वृषभानु ललि...
तुम बिन जीवन क्या जीवन है !!

अनगिनत सूर्य की ज्योति पुञ्ज,
पद नखी प्रवाह से लगती है..

धूमिल होते शशि कोटि कोटि दिव्यातिदिव्य दिव्यानन है !

हे राधे ,हे वृषभानु ललि...
तुम बिन जीवन क्या जीवन है !!

श्रुति वेद शास्त्र सब तंत्र मन्त्र,
गूंजे नुपुर झनकारो में..

वर मांगे उमा, रमा, अम्बे,
तू अखिल लोक चूड़ामणि है!

हे राधे ,हे वृषभानु ललि...
तुम बिन जीवन क्या जीवन है !!

वृजप्रेम सिंधु की लहरों में,
तेरी लीला रस अरविन्द खिले...

मकरंद भक्तिरस जहां पिए,
सोई भ्रमर कुञ्ज वृन्दावन है !

हे राधे ,हे वृषभानु ललि...
तुम बिन जीवन क्या जीवन है !!

जहां नाम तेरे की रसधारा,
दृग अश्रु भरे स्वर से निकले..

उस धारा में ध्वनि मुरली की,
और मुरलीधर का दर्शन है!

हे राधे ,हे वृषभानु ललि...
तुम बिन जीवन क्या जीवन है !!

राधा माधव ,माधव राधा,
तुम दोनों में कोई भेद नही..

तुमको जो भिन्न कहे जग में,
कोई ग्रन्थ,शास्त्र,श्रुति वेद नही..

आराध्य तू ही आराध्या तू,
आराधक और आराधन है !

हे राधे ,हे वृषभानु ललि...
तुम बिन जीवन क्या जीवन है !!

जहां नाम, रूप ,लीला छवि रस,
चिंतन गुणगान में मन झूमें..

उस रस में तू रासेश्वरी है,
रसिकेश्वर और निधिवन है!

हे राधे ,हे वृषभानु ललि...
तुम बिन जीवन क्या जीवन है !!

जब आर्त ह्रदय यह कह निकले,
वृषभानु ललि मैं तेरी हूँ...

उस स्वर की पदरज सीस चढ़े,
तब लालन के संग गोचन है!

हे राधे ,हे वृषभानु ललि...
तुम बिन जीवन क्या जीवन है !

जिस जीवन की तुम जीवन हो,
वो जीवन ही संजीवन है !!

हे राधे ,हे वृषभानु ललि...
तुम बिन जीवन क्या जीवन है !

।श्री राधारमणाय् समर्पणम्।

मैं तुम्हारी चरण-रज हूँ

II श्री हरिः शरणम् II

मैं तुम्हारी चरण-रज प्रभु,जहां चाहोगे रहूंगी।
लिपट चरणों से तुम्हारे, जहां जाओगे चलूंगी।
यदि कभी गौएँ चराने,तुम विपिन में जाओगे प्रभु
मैं तुंहारे साथ रह कर,संग दौड़ूंगी चलूंगी। ..
गोपियों के घर कभी यदि,जाओगे माखन चुराने
चौर्य लीला लख मगन मन, मंजु मूर्ती मैं लखूँगी।..
जब कभी यमुना पुलिन में, रास लीला तुम करोगे।
रास की उस धूम में मैं, संग नाचूंगी छकूँगी ।। ...
बैठ वंशीवट तले तुम,वेणु-वादन जब करोगे।
वह सुरीली तान सुन मैं, धन्य जीवन को करूंगी।....
छोड़ वृज को मान मर्दन,कंस का करने गए यदि।
धूल से चन्दन बनूँगी,मैं उसे पावन करूंगी।....
तुच्छ हूँ पर आस केवल,नाथ चरणों की मुझे है।
मिल गए हैं आज जब ये, तब भला कैसे तजूंगी।....
अब यही केवल विनय है,दूर प्रभु मुझ को न करना।
इन पदों में ही ' सनातन ', शेष जीवन काट लूँगी।मैं.....

Saturday 10 October 2015

सांझी पद

   
राधा प्यारी कह्यो सखिन सों
     सांझी धरोरी माई।

बिटियां बहुत अहीरन की
     मिल गई जहां फूलन अथांई॥

यह बात जानी मनमोहन
      कह्यो सबन समुझाय।

भैया बछरा देखे रहियो
      मैया छाक धराय॥

असें कहि चले श्यामसुंदरवर
      पहुंचे जहां सब आई।

सखी रूप वहीँ मिलें लाडिले
     फूल लिये हरखाई॥

करसों कर राधा संग शोभित
     सांझी चीती जाय।

खटरस के व्यंजन अरपे
      तब मन अभिलाख पुजाय॥

कीरति रानी लेत बलैया
     विधिसों विनय सुनाय।

सूरदास अविचल यह जोरी
      सुख निरखत न अघाय॥

श्री राधारमणाय समर्पणम्।

मधुराष्टकं भावार्थ सहित-- श्रीमद् वल्लभाचार्य रचित मधुराष्टकम

अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरम्।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ।।
आपके होंठ मधुर हैं, आपका मुख मधुर है, आपकी ऑंखें मधुर हैं,
आपकी मुस्कान मधुर है, आपका हृदय मधुर है, आपकी चाल मधुर है,
मधुरता के राजा श्रीकृष्ण आपका सब कुछ मधुर है ॥1॥

वचनं मधुरं चरितं मधुरं वसनं मधुरं वलितं मधुरम्।
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ।।
आपका बोलना मधुर है, आपका चरित्र मधुर है, आपके वस्त्र मधुर हैं, आपके वलय मधुर हैं, 
आपका चलना मधुर है,आपका घूमना मधुर है, मधुरता के राजा श्रीकृष्ण आपका सब कुछ मधुर है ॥2॥

वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुरः पाणिर्मधुरः पादौ मधुरौ।
नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ।।
आपकी बांसुरी मधुर है, आपके लगाये हुए पुष्प मधुर हैं, आपके हाथ मधुर हैं,आपके चरण मधुर हैं ,
आपका नृत्य मधुर है, आपकी मित्रता मधुर है, मधुरता के राजा श्रीकृष्ण आपका सब कुछ मधुर है ॥3॥

गीतं मधुरं पीतं मधुरं भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम् ।
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ।।
आपके गीत मधुर हैं,.आपका पीताम्बर मधुर है, आपका खाना मधुर है, आपका सोना मधुर है, 
आपका रूप मधुर है, आपका टीका मधुर है, मधुरता के राजा श्रीकृष्ण.आपका सब कुछ मधुर है ॥4॥

करणं मधुरं तरणं मधुरं हरणं मधुरं रमणं मधुरम्।
वमितं मधुरं शमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ।।
आपके कार्य मधुर हैं,आपका तैरना मधुर है,आपका चोरी करना मधुर है, आपका प्यार करना मधुर है, 
आपकेशब्द मधुर हैं, आपका शांत रहना मधुर है, मधुरता के राजा श्रीकृष्ण आपका सब कुछ मधुर है ॥5॥

"जय श्रीकृष्णा"

चाकर राखले साँवरिया...तेरा बहुत बड़ा दरबार.

चाकर राखले साँवरिया...तेरा बहुत बड़ा दरबार...
बहुत बड़ा दरबार...चाकर राखले...

पूरब पस्चिम उत्तर दक्षिण...दशों दिशा में राज तेरा...
राजा और महाराजा तेरे...आगे है लाचार...चाकर राखले...
चाकर राखले साँवरिया...तेरा बहुत बड़ा दरबार...

तीनो लोक चोदह भुवनं में...फैला कारोबार तेरा...
युगों युगों से सरपट दौड़ा...श्याम तेरा दरबार...चाकर राखले...
चाकर राखले साँवरिया...तेरा बहुत बड़ा दरबार...

सीधा सादा बन्दा मैं तो...नेम धेम का पक्का रे...
ऐसे चाकर की तो होगी...श्याम तुम्हे दरकर...चाकर राखले...
चाकर राखले साँवरिया...तेरा बहुत बड़ा दरबार...

जो सोपेंगा काम साँवरा...चाव लगाकर करूँगा रे...
अरजी है साँवरिया मेरी...मौका दे एक बार...चाकर राखले...
चाकर राखले साँवरिया...तेरा बहुत बड़ा दरबार...

जो देवोगे पूण आर्शीवाद...हंसी ख़ुशी से लैलूंगा रे...
भक्त तेरी रजा में राजी...सेवक्या है तैयार...चाकर राखले...

चाकर राखले साँवरिया...तेरा बहुत बड़ा दरबार...
बहुत बड़ा दरबार...चाकर राखले...

नीली नीली पाग पहने आयो

नीली नीली पाग पहने आयो
कारो लल्लो प्रातः उठी के।

मुस्कातो अलसातो दूध पीवै
भाग्य पद्मगन्धा गौ जू के।

रसमय मृदुल चितवन वारो
गोद चढ़ जाये जसोदा जू के।

नवल विमोहन लालो सखी
सोई जाय नित दूध पी के।

नजर उतारे जसुमति मईया
लेइ बाल गैया पूंछरी के।

जुग जुग जीवै मइया तेरो लालो
आसीस सखी नीरा गोपी के।

नीरा कहे प्रभु गरीब बिहारी
आज रूप धरे राधारमण के।

बलि बलि जाऊ श्री साँवरिया
भाव दरसन भव्य मंगला के।

मस्ती में रहकर मस्ताने हो गये

  • मस्ती में रहकर मस्ताने हो गये, ,,,,
  • श्याम तेरे नाम के दिवाने हो गए, ,,
  • तेरे बिना कुछ भी भाता नहीं'
  • तेरे सिवा कुछ याद आता नहीं,
  • हम हैं तुम्हारे तुम हमारे हो गये,
  • श्याम तेरे नाम के दिवाने हो गए

जय श्री राधाश्यामसुंदर

तेरी अदाओं का मेरे पास कोई जवाब नहीं है

.सावॅरिया ,,,,
  • तेरी अदाओं का 
               मेरे पास कोई जवाब नहीं है
  • अब मेरी आँखों में 
              तेरे सिवा कोई ख्वाब नहीं है,,,
  • तुम मत पूछो, 
              मुझे कितनी मोहब्बत है तुमसे,,
  • इतना ही जानो, 
              मेरी मोहब्बत का कोई हिसाब नहीं है...

जय श्री कृष्णा