Saturday 31 October 2015

काम - क्रोध - मद - मिट गए , गई आसक्ति छूट।

घर में रुचि कुछ अधिक है , काम - क्रोध का जोर।
वृद्धावस्था आ गई , पर न चले हरि ओर।।
तो , लिख पल्लू बाँध लो ,कि अब न मिले नरचाम।
क्योंकि भजन बिन सद् गति , हो नहीं "रोटीराम "।।
यम कहता तुमने नहीं , मान दिया नरदेह।
फंसे रहे संसार में , पुत्र - पौत्र स्नेह।।
कैसे ? फिर दे दूँ तुम्हें , सद् गति बिन सत्कर्म।
सद् गति को तो चाहिए , संग्रह मानव धर्म।।

( लेकिन इसके विपरीत )
काम - क्रोध - मद - मिट गए , गई आसक्ति छूट।
जिव्हा को वश कर लिया , थम गईं माथाकूट।।
तो तुमसे लिव जाएगा , अब ईश्वर का काम।
इन रहते सम्भव नहीं , भक्ति " रोटीराम "।।
ऐसा गीता में कहा , स्वयं कृष्ण भगवान।
और न मिलता शास्त्र में , ऐसा कहीं प्रमान।।
कि रहते इनके ले सका , हो कोई भगवन्नाम।
और लिया उसको बुला , हरि ने अपने धाम।।

( गीता श्लोक 2 / 71 )
विहाय कामान्यः सर्वान्पु मांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकार स शान्ति मधिगच्छति।।

अर्थ - जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग करके स्पृहा रहित , ममता रहित , और अहंता रहित हो कर आचरण करता है , वही परमशांति को प्राप्त होता है ।

व्याख्या - जब मनुष्य ममता - कामना - राग - द्वेष अहंता से छूट जाता है , तब उसे अपने अंदर नित्य - निरन्तर स्थित रहने वाली शांति का अनुभव होता है । यानी मूल में अहंता ही मुख्य रही । लेकिन सबका त्याग कर देने पर भी अहंता तो फिर भी बच जाती है । लेकिन अगर अहंता का त्याग कर दिया जाए तो , बाकी सब का त्याग अपने आप हो जाता है ।
अहंता से ही काम - क्रोधादि आदि विकारों का जन्म होता है ।
हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है ।
चिन्मय सत्तामात्र में ममता - अहंता आदि विकारों का प्रश्न ही पैदा नहीं होता । इस भूल को मिटाने  की जिम्मेदारी हम पर ही है , तभी तो भगवान इनका त्याग करने की बात करते हैं । अन्यथा तो , जो है ही नहीं , उसका त्याग तो स्वतः सिद्ध है , और जो स्वतः सिद्ध है, उसे ही तो प्राप्त करना है । नया निर्माण कुछ नहीं करना है । नया - नया निर्माण हीै तो हमारे बन्धन और दुखों का कारण बनता है ।

No comments:

Post a Comment