Monday 30 November 2015

हे स्वामी! अनन्य अवलबन, हे मेरे जीवन-‌ आधार।

हे स्वामी! अनन्य अवलबन, हे मेरे जीवन-‌ आधार।
तेरी दया अहैतुकपर निर्भरकर आन पड़ा हूँ द्वार॥
जाऊँ कहाँ जगतमें तेरे सिवा न शरणद है को‌ई।
भटका, परख चुका सबको, कुछ मिला न, अपनी पत खो‌ई॥
रखना दूर, किसीने मुझसे अपनी नजर नहीं जोड़ी।
अति हित किया-सत्य समझाया, सब मिथ्या प्रतीति तोड़ी॥
हु‌आ निराश, उदास, गया विश्वास जगतके भोगोंका।
जिनके लिये खो दिया जीवन, पता लगा उन लोगोंका॥
अब तो नहीं दीखता मुझको तेरे सिवा सहारा और।
जल-जहाजका कौ‌आ जैसे पाता नहीं दूसरी ठौर॥
करुणाकर! करुणाकर सत्वर अब तो दे मन्दिर-पट खोल।
बाँकी झाँकी नाथ! दिखाकर तनिक सुना दे मीठे बोल॥
गूँज उठे प्रत्येक रोममें परम मधुर वह दिव्य स्वर।
हृान्त्री बज उठे साथ ही मिला उसीमें अपना सुर॥
तन पुलकित हो, सु-मन जलजकी खिल जायें सारी कलियाँ।
चरण मृदुल बन मधुप उसीमें करते रहें रंगरलियाँ॥
हो जाऊँ उन्मा, भूल जाऊँ तन-मनकी सुधि सारी।
देखूँ फिर कण-कणमें तेरी छबि नव-नीरद-घन प्यारी॥
हे स्वामिन्‌! तेरा सेवक बन तेरे बल होऊँ बलवान।
पाप-ताप छिप जायें हो भयभीत मुझे तेरा जन जान॥

पूज्य हनुमानप्रसादजी पोद्दार
संग्रह: पद-रत्नाकर

नारायण । नारायण ।

Friday 27 November 2015

Love is longing and longing, the pain of being parted;

Love is longing and longing, the pain of being parted;
No illness is rich enough for the distress of the heart,
A lover's lament surpasses all other cries of pain.
Love is the royal threshold to God's mystery.
The carnival of small affections and polite attachments
Which litter and consume our passing time
Is no match to Love which pulses behind this play.
It's easy to talk endlessly about Love,
To live Love is to be seized by joy and bewilderment;
Love is not clear-minded, busy with images and argument.
Language is too precocious, too impudent, too sane
To stop the molten lava of Love which churns the blood,
This practicing energy burns the tongue to silence;
The knowing pen is disabled,
servile paper Shrivels in the fire of Love.
Bald reason too is an ass Explaining Love,
deceived by spoilt lucidity.
Love is dangerous offering no consolation,
Only those who are ravaged by Love know Love,
The sun alone unveils the sun to those who have
The sense to receive the senseless and not turn away.
Cavernous shadows need the light to play
but light And light alone can lead you to the light alone.
Material shadows weigh down your vision with dross,
But the rising sun splits the ashen moon in empty half.
The outer sun is our daily miracle in timely Birth and death,
the inner sun Dazzles the inner eye in a timeless space.
Our daily sun is but a working star in a galaxy of stars,
Our inner sun is One, the dancing nuance of eternal light.
You must be set alight by the inner sun,
You have to live your Love or else
You'll only end in words.

Wednesday 25 November 2015

होना है जिस देह को , पंचतत्व में लीन।

होना है जिस देह को , पंचतत्व में लीन।
उसको साज संवारने , क्यों ? रहा कन्डे बीन।।
कर पाए तो शीघ्र कर, इससे अब सत्काम।
वरना यह मलमूत्र का , भांडा "रोटीराम "।।
भोजन - निद्रा - भोग तो , हम अरु पशु समान।
यह तन तब ही दिव्य है , जब जापे भगवान।।
गर नहीं आज विवेक से , ले पाया तू काम।
तो सौ प्रतिशत sure है , पुनर्जन्म पशुचाम।।

( नीति शतक ) में लिखा है कि ,
आहार - निद्रा - भय मैथुनम् च , सामान्य मेतत् पशु भिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषा मधिको विशेषो , धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।।
( आहार - निद्रा - भय और मैथुन तो पशु शरीर और मानव शरीर में एक समान ही है , मनुष्य  को जो विवेक रूपी निधि मिली हुई है , बस  वही हमें पशुओं से अलग करती है ।
विवेक का  इस्तेमाल करके हम तो सत्कर्मों के द्वारा धर्म पथ पर चल कर परमात्म तत्व को पा सकते हैं , पशु  नहीं । इसलिए अगर मनुष्य तन पाकर भी अगर  हमने इस शरीर को यूँ हीं गँवा दिया तो , हममें और पशु में क्या ? अंतर रह गया ।

Tuesday 24 November 2015

जादूगर मोहन दिल पे जादू ऐसा कर गए

जादूगर  मोहन  दिल  पे जादू  ऐसा कर गए
नैनों के रास्ते से सीधा मेरे दिल में उतर गए
राधा कृपा के मोती बस उनको ही मिले हैं
जो भक्त कृष्ण नाम के सागर में उतर गए
एक बार राधा कृष्ण कहने का परिणाम है
के एक नहीं  मेरे  पूरे सौ  जन्म  सुधर गए
बङा  बेदर्दी  हरजाई  है  मेरा  गिरिधर
के मेरा दिल लेके अपना देने से मुकर गए
क्या हिसाब दोगे मेरे उन महीनों सालों का
जो तेरी यादों में कन्हैया रो रो के यूँ गुजर गए
प्रेम की पराकाष्ठा  थी  बात  ये  विश्वास  की
लिखा था रम नाम वो पत्थर भी जल से तर गए
               राधे राधे

Wednesday 18 November 2015

राम राम कहिये राम राम कहिये...

राम राम कहिये राम राम कहिये...
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये...

मुख में हो राम नाम~राम सेवा हाथ में...
तू अकेला नाहिं प्यारे~राम तेरे साथ में...
विधि का विधान~जान हानि लाभ सहिये...

किया अभिमान तो फिर मान नहीं पायेगा...
होगा प्यारे वही जो श्री रामजी को भायेगा...
फल आशा त्याग शुभ कर्म करते रहिये...

ज़िन्दगी की डोर सौंप हाथ दीनानाथ के...
महलों मे राखे चाहे झोंपड़ी मे वास दे...
धन्यवाद निर्विवाद राम राम कहिये...

आशा एक रामजी से~दूजी आशा छोड़ दे...
नाता एक रामजी से~दूजे नाते तोड़ दे...
साधु संग~राम रंग~अंग अंग रंगिये...
काम रस त्याग~प्यारे राम रस पगिये...
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये...

हे दयामय! दीनबन्धो! दीन को अपना‌इये।

हे दयामय! दीनबन्धो! दीन को अपना‌इये।
डूबता बेड़ा मेरा मझदार पार लँघा‌इये॥
नाथ! तुम तो पतितपावन, मैं पतित सबसे बड़ा।
कीजिये पावन मुझे मैं शरणमें हूँ आ पड़ा॥
तुम गरीब-निवाज हो, यों जगत सारा कह रहा।
मैं गरीब अनाथ दुःख-प्रवाहमें नित बह रहा॥
इस गरीबीसे छुड़ाकर कीजिये मुझको सनाथ।
तुम-सरीखे नाथ पा, फिर क्यों कहाऊँ मैं अनाथ ?॥
हो तृषित आकुल अमित प्रभु! चाहता जो बूँद-नीर।
तुम तृषाहारी अनोखे उसे देते सुधा-क्षीर॥
यह तुम्हारी अमित महिमा सत्य सारी है प्रभो!।
किसलिये मैं रहा वचित फिर अभीतक हे विभो!॥
अब नहीं ऐसा उचित प्रभु! कृपा मुझपर कीजिये।
पापका बन्धन छुड़ा नित-शान्ति मुझको दीजिये॥

पूज्य हनुमानप्रसादजी पोद्दार
संग्रह: पद-रत्नाकर

नारायण । नारायण ।

Tuesday 17 November 2015

बरसाने की राधिका, नन्दगाँव के श्याम।



बरसाने  की राधिका,  नन्दगाँव के श्याम।
को ले अब हिरदय वसा, अपने रोटीराम।।
क्योंकि यही बस कर सकें , तुझको भव से पार।
ना तो जोडी सम्पदा, और न सुत परिवार।।
अब इनसे वैराग्य ले, अरु मुक्ति की सोच।
वरना ये अपने तुझे, देंगे नर्क दबोच।।
वैसे भी अब कौन से, बाकी रह गए काम।
जो अब भी घर में पडा, छोड-छाड हरिनाम।।

तृष्णा का कोई आज तक,पा नहीं पाया अंत ।
कुंवारा हो या व्याहता, भिक्षुक हो या सन्त।।
जिसने भी इसको लिया , भूल चूक पुचकार।
उसका इसने जन्म अरु, दीनी मृत्यु बिगार।।
फिर वह जीवन में कभी, कर न सका सत्काम।
लार टपकती ही रही, आश्रम-सम्पति-दाम।।
दमडी मिलनी चाहिए, कर कुछ भी व्यवहार।
उसके दूषित हो गए, ‘ रोटीराम विचार।।

नवधा भक्ति में रखीं , " तुलसी " आठ सशर्त।

नवधा   भक्ति    में    रखीं  , "  तुलसी "    आठ   सशर्त।
        केवल     पहली    में    नहीं   ,  रक्खी    कोई    शर्त।।
           इसीलिए    भक्ति    यही   ,   है     सबसे    आसान।
               ऊपर से यह दिव्यता, कि  मिला  सके  भगवान।।
     क्यों  ?  फिर  हम   उन   आठ  में , ज्यादा रुचि  दिखायं।
        उतनी  ही   वे   बहुत  है  ,  जितनी   हम   कर   पायं।।
           पहली  से   ही   सध  रहे  ,  जब   अपने   सब  काम।
               तो  क्यों  ?  शर्तों   में   बंधें ,  बोलो  " रोटीराम "।।
                  ( तुलसीदास  जी  ने  लिखा  है  कि  - - - -     )
 बिन   सत्संग   विवेक   न  होई  ,
         राम   कृपा   बिन   सुलभ   न   सोई ।।
                   ( शर्तों   का   विवरण  )
 प्रथम   भगति   संतन्ह   कर   संगा  ,
               शर्त  ( कोई  नहीं  )
     दूसर    रति     मम     कथा     प्रसंगा ,
               शर्त  -  कथा   सुनें  ,  मगर (  रति  )  के  साथ,
      गुरु    पद   पंकज   सेवा   तीसरि   भगति  ( अमान ),
               शर्त  -  गुरु  चरणों  की  सेवा, मगर( अमानी) होकर,
      चौथि    भगति     मम     गुन    गन ,
                                 करइ    ( कपट )   तजि    गान ।
               शर्त  - (  कपट  )  से   रहित    होकर 
     मंत्र    जाप        मम      ( दृढ विस्वासा )  ,
                               पंचम   भजन   सो   वेद   प्रकाशा,
              शर्त  -  ( दृढ   विस्वास  होना  चाहिए  ) ,
     छठ    दम   सील     ( विरति  )  बहु   करमा ,
                               निरत   निरंतर    सज्जन   धरमा,
              शर्त  - ( विरक्ति ) लेकर  निरन्तर(  धर्म  का   पालन ) ,
     सातवँ   सम    ( मोहि    मय    जग   देखा ) ,
                               मोते   अधिक   संत   करि   लेखा,
               शर्त  -  ( चराचर   सृष्टि   में  मेरा   दर्शन  हो )
     आठवँ      जथा      लाभ    संतोषा   ,
                               सपनेहुँ    नहीं    देखइ    परदोषा ,
               शर्त -  ( सन्तोषी हो , और  दूसरों  में  दोष न देखे ),
     नवम    सरल    सब    सन    छल    हीना  ,
                               मम   भरोस   हियँ   हरष   न  दीना ,
 नव    महुँ    एकउ    जिन्ह     के     होई   ,
                               नारि   पुरुष   सचराचर   कोई  ,

Monday 16 November 2015

राम - राम जप , राम जप , राम - राम जप राम।

राम - राम जप , राम जप , राम - राम जप राम।
क्योंकि यही वह मंत्र है , जो मुक्ति दे " रोटीराम "।।
हल्के में मत ले इसे , और न एक पल भूल।
यही एक दिन दे तुझे , कर हरि के अनुकूल।।

काम - क्रोध नहीं मिट सके , लोभ , न सका पछाड।
राग - द्वेष का जोर है , घर आसक्ति पहाड।।
तो लिख कर पल्लू बाँध ले , कि पाएगा पशुचाम।
पुनर्जन्म में , तन नहीं , नर का " रोटीराम "।।

मन मक्खी मानिन्द है , मन को मैला भाय।
मोटा सोटा मारकर , मन को रखो दबाय।।
मन को गर सम्मान दे , मानी मन की बात।
तो एक दिन " रोटीराम " ये , पडबा दे यमलात।।

Saturday 14 November 2015

केवल भगवत चरण ही , लगा सकेंगे पार।

केवल  भगवत  चरण  ही ,  लगा  सकेंगे  पार।
      औरों  से  मत  आस  रख , मतलब का संसार।।
       अब  भी  ज्यादा देर ना , हुई  है  " रोटीराम "।
        वक्त  के  रहते  चेत  जा , जप ले भगवन्नाम।।
 रहते , ममता - मोह अरु ,  लोभ  के " रोटीराम "।
      जापा भी , गर " नाम " तो,  कुछ नहीं आना काम।।
       क्योंकि ये तीनों मैल हैं , सो रहता , हृदय अशुद्ध।
        फिर कैसे?  निकले भला ,  हरिनाम  हो  शुद्ध।।
  कोस रहा , तकदीर को ,  क्यों ?  पी , पानी रोज।
      कांटे बो क्यों ?  चाहता , कि तुझको खिलें सरोज।।
       ऐसा हुआ ,  न हो सके ,  बिलकुल  " रोटीराम "।
        गुलशन महके , बस वहीं ,जो कर मरते सत्काम।।

कफन में जब,होती नहीं ,जेब

कफन में जब,होती नहीं ,जेब ओ! "रोटीराम"।
        तो क्यों?,संग्रह में लगा, पिला पडा है काम।।
         इससे तुझको लाभ क्या,जब जाना ही नहीं संग।
          गलत अगर कुछ हो गया, तो मृत्यु ,मुफ्त बदरंग।।
       क्यों? फिर जनम बिगाडता,कर बेमतलब के काम।
      जिम्मे तो पट ही चुके, क्या?करना फिर दाम।।
        मत भूले हरिनाम तो , ले जा सकता साथ।
        फिर क्यों नहीं जोडे इसे,जाए समां अनाथ।।
शास्त्र  बताई राह  पर , बढ  जाते  जिन  पैर।
         वे  फिर रह  पाते  नहीं, हरि  के नाम बगैर।।
      क्योंकि शास्त्र की सीख से,लें वे तत्व निकाल।
          कि भोगों से नहीं , भक्ति  से, ही  हो  सकूँ निहाल।।
      हैं  प्रमाण , तुलसी  हुए  , मीरा - सूर - कबीर।
       और हजारों , दे रहा , हमको  शास्त्र नजीर।।
     फिर क्यों वह गलती करे,क्यों न जपे हरिनाम।
       फिर वह घर, रुकता नहीं,बढले" रोटीराम "।।

परेशान क्यों ? हो रहा , क्यों ? है चिंतामग्न।

परेशान  क्यों ?  हो  रहा , क्यों ?  है चिंतामग्न।
     अब जब नित नए ,आ रहे ,हैं जीवन में विघ्न ।।
      काट वही तो पाएगा , जो , बोया " रोटीराम " ।
       सुख तो पा पाता तभी,जब जाता,जप " नाम "
मन में  रख , सद्भावना , करता  हरि  का जाप ।
      जीवन  जीता , नर  समां ,  दूरी रखता  पाप।।
       फिर घर के , जिम्मे पटा,जा वसता कहीं धाम।
        और भुला परिवार को, जपता  ईश्वर नाम ।।
लेकिन  तब  तो , था  नहीं , तेरा  इधर रुझान ।
     क्योंकि जिया नहीं स्वयं को,जीता था, सन्तान
      और बिना , सही गलत के,पूरी  कीं ,उन मांग ।
       बुद्धि को दुत्कार के ,कर  जिम्मों  का स्वाँग।।
 हर  समझौता ,  तू  किया , मन  के  आगे  हार।
     समझौतों  को  दे सदा , नाम सन्तति  प्यार ।।
      कहके यह तो रीत है , चल रही है , चिरकाल ।
       मैं नहीं तो क्या ? दूसरे , रक्खेंगे इन ख्याल।।

Friday 13 November 2015

नाथ मैं थारो जी थारो।

नाथ मैं थारो जी थारो।
चोखो, बुरो, कुटिल अरु कामी, जो कुछ हूँ सो थारो॥
बिगड्यो हूँ तो थाँरो बिगड्यो, थे ही मनै सुधारो।
सुधर्‌यो तो प्रभु सुधर्‌यो थाँरो, थाँ सूँ कदे न न्यारो॥
बुरो, बुरो, मैं भोत बुरो हूँ, आखर टाबर थाँरो।
बुरो कुहाकर मैं रह जास्यूँ, नाँव बिगड़सी थाँरो॥

थाँरो हूँ, थाँरो ही बाजूँ, रहस्यूँ थाँरो, थाँरो!!
आँगलियाँ नुँहँ परै न होवै, या तो आप बिचारो॥
मेरी बात जाय तो जा‌ओ, सोच नहीं कछु हाँरो।
मेरे बड़ो सोच यों लाग्यो बिरद लाजसी थाँरो॥
जचे जिस तराँ करो नाथ! अब, मारो चाहै त्यारो।
जाँघ उघाड्याँ लाज मरोगा, ऊँडी बात बिचारो॥

पद रत्नाकर

नारायण। नारायण ।

दर्दे दिल कि दवा दिजिए मेरी राधे

दर्दे दिल कि दवा दिजिए मेरी राधे
दर्दे दिल कि दवा दिजिए मेरी श्यामा
थोड़ा सा मुस्कुरा दीजिए मेरी राधे
थोड़ा सा मुस्कुरा दीजिए मेरी श्यामा
मेरा दिल आपका घर हुआ मेरी राधे
आते जाते रहा किजिए मेरी राधे
थोड़ा सा मुस्कुरा दीजिए मेरी राधे
दर्दे दिल कि दवा दिजिए मेरी राधे......
गिर ना जाऊं कहीं राह में चलते चलते
आके खुद आसरा दीजिए मेरी राधे
थोड़ा सा मुस्कुरा दीजिए मेरी राधे
दर्दे दिल कि दवा दिजिए मेरी राधे......
आँधियों में भी बुझ ना सके काबिल
ऐसा दीपक बना दीजिए मेरी राधे
थोड़ा सा मुस्कुरा दीजिए मेरी राधे
दर्दे दिल कि दवा दिजिए मेरी राधे......
में सही हूँ गलत हूँ क्या जानू मेरी राधे
आके खुद फैसला कीजिये मेरी राधे
थोड़ा सा मुस्कुरा दीजिए मेरी राधे
दर्दे दिल कि दवा दिजिए मेरी राधे......
जख्म दुनिया ने मुझको दिए मेरी राधे
आके मरहम लगा दीजिए मेरी राधे
थोड़ा सा मुस्कुरा दीजिए मेरी राधे
दर्दे दिल कि दवा दिजिए मेरी राधे......
मेने माना के में हूँ नहीं तेरे काबिल
मुझको काबिल बना दीजिए मेरी राधे
थोड़ा सा मुस्कुरा दीजिए मेरी राधे
दर्दे दिल कि दवा दिजिए मेरी राधे......
श्री राधे......

श्री राधा कृष्ण अर्पित


मेरा आपकी कृपा से, सब काम हो रहा है।
करते हो तुम कन्हैया, मेरा नाम हो रहा है॥

पतवार के बिना ही, मेरी नाव चल रही है।
हैरान है ज़माना, मंजिल भी मिल रही है।
करता नहीं मैं कुछ भी, सब काम हो रहा है॥

तुम साथ हो जो मेरे, किस चीज की कमी है।
किसी और चीज की अब, दरकार ही नहीं है।
तेरे साथ से गुलाम अब, गुलफाम हो रहा है॥

मैं तो नहीं हूँ काबिल, तेरा पार कैसे पाऊं।
टूटी हुयी वाणी से गुणगान कैसे गाऊं।
तेरी प्रेरणा से ही सब यह कमाल हो रहा हैं॥

Thursday 12 November 2015

नरतन हमको क्यों ? मिला , जानो इसका हेतु


चित्रगुप्त - यम यह कहें , जब था मालुम परिणाम।
तो क्यों ? वैलों सम पिले , रहे कमाते दाम।।
नरतन इसको तो नहीं , देते हैं भगवान।
मानव तन का , हेतु तो , एक मात्र कल्यान ।।
 ईश्वर ने भेजा हमें , काहे को संसार ।
क्या इस बावत आप - हम,करते कभी विचार।।
अगर नहीं , तो क्यों ? नहीं, कोई तो हो हेतु।
सम्भव है , यह देह दी , हो "उनने " कर सेतु।।
जिस पर चढकर आप - हम ,पहुँच सकें "उन " धाम।
घर के सब जिम्मे पटा, और सुमिर उन " नाम"।।
और तो कोई दूसरा , हेतु समझ नहीं आय ।
भोजन - मैथुन - शयन तो , पशु भी कर मर जाय।।
सो मित्रो, अब संभल लो , अब भी हुई न देर।
आखिर तो, मरना पडे , अब नहीं ,। देर - सवेर।।
हेतु समझ जो तज दिए , जग के धन्धे - काम।
तो साधन कहलाएगा , यह तन " रोटीराम "।।

जो बोया सो काट ले , अब रोकर क्या ? लाभ

परेशान क्यों ? हो रहा , क्यों ? है चिंतामग्न।
अब जब नित नए ,आ रहे ,हैं जीवन में विघ्न ।।
काट वही तो पाएगा , जो , बोया " रोटीराम " ।
सुख तो पा पाता तभी,जब जाता,जप " नाम "
मन में रख , सद्भावना , करता हरि का जाप ।
जीवन जीता , नर समां , दूरी रखता पाप।।
फिर घर के , जिम्मे पटा,जा वसता कहीं धाम।
और भुला परिवार को, जपता ईश्वर नाम ।।
लेकिन तब तो , था नहीं , तेरा इधर रुझान ।
क्योंकि जिया नहीं स्वयं को,जीता था, सन्तान
और बिना , सही गलत के,पूरी कीं ,उन मांग ।
बुद्धि को दुत्कार के ,कर जिम्मों का स्वाँग।।
हर समझौता , तू किया , मन के आगे हार।
समझौतों को दे सदा , नाम सन्तति प्यार ।।
कहके यह तो रीत है , चल रही है , चिरकाल ।
मैं नहीं तो क्या ? दूसरे , रक्खेंगे इन ख्याल।

सब स्वतंत्र हैं कर्म में

सब स्वतंत्र हैं कर्म में , पर फल में परतंत्र ।
क्योंकि कर्म हरि देखते , यह गीता का मंत्र।।
गर " उन " माना शुद्ध हैं, तो सुखद मिले परिणाम।
पर कहीं मैले बन गए , तो फटके " रोटीराम "।।
इस कारण हम आज ही , लें निज कर्म संभाल।
जिससे जा कल यमपुरी , हो नहीं अधिक मलाल।।
कि हमें तो मालूम ही नहीं , था यह गीता ज्ञान।
यह लागू हर जीव पै , क्या ? निर्धन - धनबान।।
( गीता ज्ञान - 2 / 47 )
कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफल हेतुर्भूर्मा ते सन्गोऽस्त्व कर्मणि।।
अर्थ - जीव का अधिकार केवल नए कर्म करने में है , उसके फलों में नहीं ।
अतः हे अर्जुन तू कर्मफल का हेतु भी मत बन , और कर्म करने में अनासक्त भी मत हो ।
व्याख्या - कर्म करना और किस कर्म का क्या ? फल मिलेगा, ये दोनों अलग अलग विभाग हैं, कर्म करना तो मनुष्य के अधीन है , लेकिन किस कर्म का क्या ? फल हो , यह होना प्रारब्ध यानी परमात्मा के अधीन है । व्यक्ति तो जो भी कर्म करता है , उसे शुद्ध ठहरा देता है , लेकिन वह शुद्ध है या अशुद्ध , इसका निर्णय तो उचित प्रकार से परमात्मा ही ले सकते हैं । मेरे उस कर्म का फल मुझे यही मिलना चाहिए , जीव इसके लिए परमात्मा को विवश नहीं कर सकता।

भक्त अगर भक्त है

वैसे तो भक्त अगर भक्त है,
तो वह कभी गिरता नहीं,
लेकिन अगर कभी गिर भी जाय, 

तो तुरंत उठ कर खडा हो जाता है, 
और फिर से ज्ञान और भक्ति से सम्पन्न हो जाता है । 
गिरना कोई बडी बात नहीं,
बडी बात तो गिर कर भी फिर से उठ जाना है।

संत और असंत में सबसे बडा अंतर यही है,
कि संत तो एक चंदन के बृक्ष के समान परोपकारी स्वभाव वाले होते हैं,
और असंत कुल्हाडी के समान।
ये दोनों ही अपना स्वभाव नहीं छोडते।
कुल्हाडी रूपी असंत चंदन रूपी संत को भले ही मिटाने का प्रयास करे,
लेकिन चंदन मिटते मिटते भी कुल्हाडी में सुगंध छोडही जाता है।

Saturday 7 November 2015

हे कमल नयन मदन मोहन

हे कमल नयन मदन मोहन हे मृद भाषी मनहर चितवन.
आपकी वाणी की मोहकता तो करे आकर्षित बुद्धिमानों का मन.
.
हम तो ठहरी गाँव की ग्वालन फिर इससे भला कैसे बच पाती.
दौड़ पडी सुनके वेणु की नाद हम अपने प्रेम नही छुपा पाती.
.
ये नेत्र, ये शब्द, ये वाणी प्रभु हमें आपकी ओर खींच रहे हैं.
हम भाग रही है आपकी ओर आप हमसे आँखें मीच रहे हैं.
.
दर्शन बिना अब प्राण जाने को है मानो बची हैं कुछ साँसें सीमित.
इस धरा के परे अधरामृत तुम्हारा पान करा, कर दो फिर से जीवित.

अधिक दिनों तक अब नहीं , चलनी है यह देह ।

अधिक दिनों तक अब नहीं , चलनी है यह देह ।
उनकी जो बूढे हुए , तनिक नहीं सन्देह ।।
क्योंकि पक चुका आम यह, आज नहीं तो काल।
टपकेगा ही Sure है , तज कर अपनी डाल।।
सो संशय तज अब जपें , बूढे भगवन्नाम।
क्या ? आने हैं काम अब , पुत्रादिक - सुख - दाम।।
वानप्रस्थ की आयु तो , करने को उद्धार।
" रोटीराम " न चूकिऐ , हो लो भव से पार।।
जिसे अहैतुकी भक्ति का , रुतबा देते शास्त्र।
जिसको कर इन्सान हो , परम धाम का पात्र।।
उसको करने के लिए , जब हों अपुन प्रयास।।
तब ही जा, इस देह की, कुछ उपलब्धि खास।।
इससे कमतर पर नहीं , हो पाना कल्यान।
मात्र भक्त कहलाऐंगे , दूर रहें भगवान।।
भले युगों तक जप करो ,पा - पाकर नरचाम।
बात बनेगी तो तभी , प्रथम न "रोटीराम "।।

Thursday 5 November 2015

मानव-जन्म सुदुर्लभ पाकर

।। श्री हरि ।।

मानव-जन्म सुदुर्लभ पाकर, भजे नहीं मैंने भगवान।
रचा-पचा मैं रहा निरन्तर, मिथ्या भोगोंमें सुख मान॥
मान लिया मैंने जीवनका लक्ष्य एक इन्द्रिय-सुख-भोग।
बढ़ते रहे सहज ही इससे नये-नये तन-मनके रोग॥
बढ़ता रहा नित्य कामज्वर, ममता-राग-मोह-मद-मान।
हु‌ई आत्म-विस्मृति, छाया उन्माद, मिट गया सारा जान॥
केवल आ बस गया चिामें राग-द्वेष-पूर्ण संसार।
हु‌ए उदय जीवनमें लाखों घोर पतनके हेतु विकार॥
समझा मैंने पुण्य पापको, ध्रुव विनाशको बड़ा विकास।
लोभ-क्रएध-द्वेष-हिंसावश जाग उठा अघमें उल्लास॥
जलने लगा हृदयमें दारुण अनल, मिट गयी सारी शान्ति।
दभ हो गया जीवन-सबल, छायी अमित अमिट-सी भ्रान्ति॥
जीवन-संध्या हु‌ई, आ गया इस जीवनका अन्तिम काल।
तब भी नहीं चेतना आयी, टूटा नहीं मोह-जंजाल॥
प्रभो! कृपा कर अब इस पामर, पथभ्रष्टस्न्पर सहज उदार।
चरण-शरणमें लेकर कर दो, नाथ! अधमका अब उद्धार॥

पूज्य हनुमानप्रसादजी पोद्दार
संग्रह: पद-रत्नाकर

Tuesday 3 November 2015

दुक्खालय संसार में , सुख कैसे ?

दुक्खालय संसार में , सुख कैसे ? मिल पाय।
वह भी तामस ओढकर , अरु हरि को विसराय।।
यह तो कोरा स्वप्न है , खुली आँख हम आप।
नहीं होना साकार यह , मिलें मात्र सन्ताप।।
गर है सुख की चाहना , तो सात्विकता लो ओढ।
मन को रंग लो , राम में , संसारिकता छोड।।
तब ही दुक्खालय हमें , सुख देे " रोटीराम "।
सुख का स्रोत तो एक ही , केवल भगवन्नामा।।

  जिस मन में सन्तोष हो , इच्छा , होंय समाप्त।
उस मन में ही जागती , इच्छा , हरि हों प्राप्त।।
वरना तो , जहाँ कामना , इच्छाओं का जोर।
वह मन रमता जगत में , चले न हरि की ओर।।
सो गर हरि को चाहते , तो प्रथम करो यह काम।
कि निष्कामी जीवन जिओ , मन से " रोटीराम "।।
क्योंकि " उन्हें " निष्कामता , सबसे अधिक पसंद।
निष्कामी के ही कटें , जनम - जनम के फन्द।।

Monday 2 November 2015

जिनके जिम्मे पट चुके

जिनके जिम्मे पट चुके , घर के " रोटीराम "।
उन सबको अब चाहिए , कि जापें भगवन्नाम।।
और निभाऐं वचन वो , जो दीना भगवान।
तब जब थे माँ गर्भ में , परेशान - हलकान।।
अब वह टाइम आ गया , क्योंकि पटे सब काम।
वादा जल्द निभाइये , जा जपिए हरिनाम।।
गर वादा झूँठा गया , पिछड गए हम - आप।
तो फिर गर्भों में गिरें , वही ताप - संताप।।

 " रोटीराम " वे मर चुके , बिना जले शमशान।
जिनको रस आता नहीं , भक्ति में भगवान।।
क्योंकि जो जीवन जी रहे , हेतु आज रस - भोग।
सिद्ध हुआ , वे ग्रस्त हैं , विषयी मानस रोग।।
यम कहता लेना नहीं , जब तुमको हरिनाम।
तुम्हें भोगने भोग ही , जो पशुओं का काम।।
तो दे देता तन वही , खूब भोगना भोग।
कल्पों तक सड - सड वहीं , पडे - पडे भवरोग।।

किया न मैंने भूलकर, तुमसे प्यारे

।। श्री हरि ।।

किया न मैंने भूलकर, तुमसे प्यारे! प्यार।
पर तुम अपने-‌आप ही करते रहे दुलार॥
प्यार तुम्हारा मैं रहा ठुकराता हर बार।
दूर भागता, पकड़ तुम लाते हाथ पसार॥
‘मत जा‌ओ उस मार्ग’ तुम कहते बारंबार।
हठपूर्वक जाता चला, दौडे जाते लार॥
चिर अपराधी, अघीका ढोया बोझ अपार।
(मेरे) निज निर्मित दुखमें लिया तुमने गोद सँभार॥

पूज्य हनुमानप्रसादजी पोद्दार
संग्रह: पद-रत्नाकर