Thursday 12 November 2015

सब स्वतंत्र हैं कर्म में

सब स्वतंत्र हैं कर्म में , पर फल में परतंत्र ।
क्योंकि कर्म हरि देखते , यह गीता का मंत्र।।
गर " उन " माना शुद्ध हैं, तो सुखद मिले परिणाम।
पर कहीं मैले बन गए , तो फटके " रोटीराम "।।
इस कारण हम आज ही , लें निज कर्म संभाल।
जिससे जा कल यमपुरी , हो नहीं अधिक मलाल।।
कि हमें तो मालूम ही नहीं , था यह गीता ज्ञान।
यह लागू हर जीव पै , क्या ? निर्धन - धनबान।।
( गीता ज्ञान - 2 / 47 )
कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफल हेतुर्भूर्मा ते सन्गोऽस्त्व कर्मणि।।
अर्थ - जीव का अधिकार केवल नए कर्म करने में है , उसके फलों में नहीं ।
अतः हे अर्जुन तू कर्मफल का हेतु भी मत बन , और कर्म करने में अनासक्त भी मत हो ।
व्याख्या - कर्म करना और किस कर्म का क्या ? फल मिलेगा, ये दोनों अलग अलग विभाग हैं, कर्म करना तो मनुष्य के अधीन है , लेकिन किस कर्म का क्या ? फल हो , यह होना प्रारब्ध यानी परमात्मा के अधीन है । व्यक्ति तो जो भी कर्म करता है , उसे शुद्ध ठहरा देता है , लेकिन वह शुद्ध है या अशुद्ध , इसका निर्णय तो उचित प्रकार से परमात्मा ही ले सकते हैं । मेरे उस कर्म का फल मुझे यही मिलना चाहिए , जीव इसके लिए परमात्मा को विवश नहीं कर सकता।

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