Thursday 22 October 2015

यौवन भोगों में गया , प्रौढापन घर फिक्र ।

यौवन   भोगों    में   गया  ,  प्रौढापन    घर   फिक्र ।
        बृद्ध  हुआ  तब  भी नहीं  , हरि सुमिरन  की जिक्र।।
           तो कह  तो  सही , किस  उम्र में, जापेगा हरिनाम।
             मिल तो नहीं गई अमरता , तुझको  " रोटीराम "।
     या  फिर  शक   है  मृत्यु  में , या  यम  लिया  पटाय।
       ले  नोटों  की  गड्डियां  , आकार  भी  फिर  जाय।।
         अगर नहीं तो क्यों? भला , यूँ  रहा  स्वाँस गंवाय।
           वहाँ काम नहीं गड्डियां ,हरि सुमिरन ही आय।।

  चारों    तरफा    घर   पडे  ,  बृद्ध   झेल   रहे   मार।
        तानों की और व्यंग्य की , कभी  - कभी फटकार।।
           फिर भी ज्यादातर नहीं , अक्ल  से  ले रहे काम।
             सह लेते  चुपचाप  सब , हो  आसक्ति  गुलाम।।
    यही   भूल   देगी   दिला  ,  उनको    फिर    भवपीर।
       वे  लिख, नहीं  जा  पाऐंगे , खुद ,खुद की तकदीर।।
         काश ! अक्ल से काम ले, वे जा जपते कहीं "नाम "
           तो  पा  जाते  सद् गति , नर्क  न  " रोटीराम "।।

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