Sunday 11 October 2015

मैं तुम्हारी चरण-रज हूँ

II श्री हरिः शरणम् II

मैं तुम्हारी चरण-रज प्रभु,जहां चाहोगे रहूंगी।
लिपट चरणों से तुम्हारे, जहां जाओगे चलूंगी।
यदि कभी गौएँ चराने,तुम विपिन में जाओगे प्रभु
मैं तुंहारे साथ रह कर,संग दौड़ूंगी चलूंगी। ..
गोपियों के घर कभी यदि,जाओगे माखन चुराने
चौर्य लीला लख मगन मन, मंजु मूर्ती मैं लखूँगी।..
जब कभी यमुना पुलिन में, रास लीला तुम करोगे।
रास की उस धूम में मैं, संग नाचूंगी छकूँगी ।। ...
बैठ वंशीवट तले तुम,वेणु-वादन जब करोगे।
वह सुरीली तान सुन मैं, धन्य जीवन को करूंगी।....
छोड़ वृज को मान मर्दन,कंस का करने गए यदि।
धूल से चन्दन बनूँगी,मैं उसे पावन करूंगी।....
तुच्छ हूँ पर आस केवल,नाथ चरणों की मुझे है।
मिल गए हैं आज जब ये, तब भला कैसे तजूंगी।....
अब यही केवल विनय है,दूर प्रभु मुझ को न करना।
इन पदों में ही ' सनातन ', शेष जीवन काट लूँगी।मैं.....

No comments:

Post a Comment