Tuesday 20 October 2015

भाग्य स्वयं का स्वयं खुद , लिखता है इन्सान ।

भाग्य स्वयं का स्वयं खुद , लिखता है इन्सान ।
ना तो बृह्माजी लिखें , और न आ भगवान।।
जो जैसे इस जन्म में , कर जाता है काम।
उसके ही अनुरूप विधि , लिख भेजे " रोटीराम "।।
  चार कदम भी चल पडें , गर हम " उनकी " ओर।
" उन्हें " बनालें चन्द्रमा , खुद बन जायँ चकोर।।
तो " वे " भी नहीं रह सकें , आऐं नंगे पांव।
क्या ? ध्रुव को अरु द्रोपदी , नहीं आए "रोटीराम "
  काया सुख रस - भोग में , आज भ्रमित संसार।
ठान के खुद से दुश्मनी , भूला सद् व्यवहार।।
पाने को परमात्म सुख , करे न कोई काम ।
भूल चुका मैं मनुज हूँ , पशु नहीं " रोटीराम "।।
  हरि की लीला - रूप गुण , जो न कर रहे याद।
वे मूरख यह स्वाँस धन , कर रहे हैं बर्बाद।।
पा नरतन जैसी निधि , गर न किए सत्काम।
तो इससे बढकर मूर्खता , क्या ? हो "रोटीराम "।

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