यह नरतन वरदान है , हमको श्री भगवान।
दीना है " उनने " हमें , करने को कल्यान।।
सो बिन विलम्ब कर लीजिए , मित्रों यह शुभकाम।
क्योंकि स्वांस गिनके मिलीं , हमको " रोटीराम "।।
( भावार्थ )
हमारे सभी शास्त्र और सभी सद्संत एक स्वर से, एक ही बात कहते हैं कि , यह मनुष्य तन ईश्वर ने कृपा करके हमें अपने कल्याण के लिए दिया है,
तुलसीदास जी ने भी लिखा है कि - - - - - - -
कबहुँक कर करुणा नर देही ।
देत ईश बिन हेतु सनेही ।।
इस तन की प्राप्ति का एकमात्र हेतु केवल और केवल अपना कल्याण कर लेना , यानी भगवत प्राप्ति है । इस तन के द्वारा संतानोत्पत्ति को शास्त्र मना नहीं करता, शास्त्र तो मना करता है कि , नरतन का उद्देश्य केवल भोग विलास ही नहीं हो जाना चाहिए ।
भोगों के लिए तो पशु शरीर है , इसीलिए तो पशुयोनि को भोग योनि कहा जाता है, भानवतन पाकर भी अगर अपने कल्यान के प्रति सचेत नहीं रहे तो , फिर इस मानव देह की विशेषता ही क्या ? रही ।
शास्त्र ( नीति शतक ) कहता है कि -- - - - -
आहार निद्रा भय मैथुनम् च , सामान्य मेतत् पशु भिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषा मधिको विशेषो , धर्मेण हीनाः पशुभि समानाः ।।
अर्थ - आहार - निद्रा - भय और मैथुन , ये चारों तो पशुओं और मनुष्यों में सामान्य और समान रूप से पाए जाते हैं । पशु भी खाते - पीते हैं , उन्हें भी नींद आती है , भय उन्हें भी सताता है , वे भी सन्तानोत्पत्ति करते हैं , बस मनुष्य में जो विशेषता है , वह केवल एक यही तो है कि , मनुष्य के पास विवेक है । वह धर्म और अधर्म को पहचानता है , अपना भला और बुरा समझता है , पशु नहीं ।
केवल धर्म यानी विवेक ही दोनों को प्रथक - प्रथक करने बाला तत्व है । इसलिए विवेकहीन ( अधर्मी ) पुरुष पशु के समान ही है।
इसलिए विवेकी पुरुष को अपने पारिवारिक जिम्मे निपटा कर समय के रहते अपने कल्याण के लिए भगवत पथ का आश्रय ले लेना चाहिए।
दीना है " उनने " हमें , करने को कल्यान।।
सो बिन विलम्ब कर लीजिए , मित्रों यह शुभकाम।
क्योंकि स्वांस गिनके मिलीं , हमको " रोटीराम "।।
( भावार्थ )
हमारे सभी शास्त्र और सभी सद्संत एक स्वर से, एक ही बात कहते हैं कि , यह मनुष्य तन ईश्वर ने कृपा करके हमें अपने कल्याण के लिए दिया है,
तुलसीदास जी ने भी लिखा है कि - - - - - - -
कबहुँक कर करुणा नर देही ।
देत ईश बिन हेतु सनेही ।।
इस तन की प्राप्ति का एकमात्र हेतु केवल और केवल अपना कल्याण कर लेना , यानी भगवत प्राप्ति है । इस तन के द्वारा संतानोत्पत्ति को शास्त्र मना नहीं करता, शास्त्र तो मना करता है कि , नरतन का उद्देश्य केवल भोग विलास ही नहीं हो जाना चाहिए ।
भोगों के लिए तो पशु शरीर है , इसीलिए तो पशुयोनि को भोग योनि कहा जाता है, भानवतन पाकर भी अगर अपने कल्यान के प्रति सचेत नहीं रहे तो , फिर इस मानव देह की विशेषता ही क्या ? रही ।
शास्त्र ( नीति शतक ) कहता है कि -- - - - -
आहार निद्रा भय मैथुनम् च , सामान्य मेतत् पशु भिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषा मधिको विशेषो , धर्मेण हीनाः पशुभि समानाः ।।
अर्थ - आहार - निद्रा - भय और मैथुन , ये चारों तो पशुओं और मनुष्यों में सामान्य और समान रूप से पाए जाते हैं । पशु भी खाते - पीते हैं , उन्हें भी नींद आती है , भय उन्हें भी सताता है , वे भी सन्तानोत्पत्ति करते हैं , बस मनुष्य में जो विशेषता है , वह केवल एक यही तो है कि , मनुष्य के पास विवेक है । वह धर्म और अधर्म को पहचानता है , अपना भला और बुरा समझता है , पशु नहीं ।
केवल धर्म यानी विवेक ही दोनों को प्रथक - प्रथक करने बाला तत्व है । इसलिए विवेकहीन ( अधर्मी ) पुरुष पशु के समान ही है।
इसलिए विवेकी पुरुष को अपने पारिवारिक जिम्मे निपटा कर समय के रहते अपने कल्याण के लिए भगवत पथ का आश्रय ले लेना चाहिए।
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