Sunday 10 January 2016

आते हो तुम बार-बार प्रभु !

आते हो तुम बार-बार प्रभु ! मेरे मन-मन्दिरके द्वार।
कहते-’खोलो द्वार, मुझे तुम ले लो अंदर करके प्यार’॥

मैं चुप रह जाता, न बोलता, नहीं खोलता हृदय-द्वार।
पुनः खटखटाकर दरवाजा करते बाहर मधुर पुकार॥

‘खोल जरा सा’ कहकर यों-’मैं, अभी काममें हूँ, सरकार।
‘फिर आना’-झटपट मैं घरके कर लेता हूँ बंद किंवार॥

फिर आते, फिर मैं लौटाता, चलता यही सदा व्यवहार।
पर करुणामय ! तुम न ऊबते,तिरस्कार सहते हर बार॥

दयासिन्धु ! मेरी यह दुर्मति हर लो,करो बड़ा उपकार।
नीच-‌अधम मैं अमृत छोड़, पीता हालाहल बारंबार॥

अपने सहज दयालु विरदवश, करो नाथ ! मेरा उद्धार।
प्रबल मोहधारामें बहते नर-पशुको लो तुरत उबार॥

'पद-रत्नाकर ' पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
Right arrow with hook श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार भाईजी

No comments:

Post a Comment