Friday 1 January 2016

हे मन ! कृपालु श्रीरामचंद्रजी का भजन कर

श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं ।
नवकंज लोचन, कंजमुख कर, कंज पद कंजारुणं ॥१॥

व्याख्या - हे मन ! कृपालु श्रीरामचंद्रजी का भजन कर...वे संसार के जन्म-मरण रूप दारुण भय को दूर करने वाले है...उनके नेत्र नव-विकसित कमल के समान है...मुख-हाथ और चरण भी लालकमल के सदृश हैं ॥१॥

कंदर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरद सुन्दरम ।
पट पीत मानहु तडित रूचि-शुची नौमी, जनक सुतावरं ॥२॥

व्याख्या - उनके सौंदर्य की छ्टा अगणित कामदेवो से बढ्कर है...उनके शरीर का नवीन नील-सजल मेघ के जैसा सुंदर वर्ण है...पीताम्बर मेघरूप शरीर मे मानो बिजली के समान चमक रहा है...ऐसे पावनरूप जानकीपति श्रीरामजी को मै नमस्कार करता हू ॥२॥

भजु दीनबंधु दिनेश दानव दैत्य वंश निकन्दनं ।
रघुनंद आनंद कंद कोशल चन्द्र दशरथ नंदनम ॥३॥

व्याख्या - हे मन! दीनो के बंधू, सुर्य के समान तेजस्वी , दानव और दैत्यो के वंश का समूल नाश करने वाले,आनन्दकंद, कोशल-देशरूपी आकाश मे निर्मल चंद्र्मा के समान, दशरथनंदन श्रीराम का भजन कर ॥३॥

सिर मुकुट कुंडल तिलक चारू उदारु अंग विभुषणं ।
आजानुभुज शर चाप-धर, संग्राम-जित-खर दूषणं ॥४॥

व्याख्या- जिनके मस्तक पर रत्नजडित मुकुट, कानो मे कुण्डल, भाल पर तिलक और प्रत्येक अंग मे सुंदर आभूषण सुशोभित हो रहे है...जिनकी भुजाए घुटनो तक लम्बी है. जो धनुष-बाण लिये हुए है...जिन्होने संग्राम मे खर-दूषण को जीत लिया है ॥४॥

इति वदति तुलसीदास, शंकर शेष मुनि-मन-रंजनं ।
मम ह्रदय कंज निवास कुरु, कामादि खल-दल-गंजनं ॥५॥

व्याख्या - जो शिव, शेष और मुनियो के मन को प्रसन्न करने वाले और काम , क्रोध , लोभादि शत्रुओ का नाश करने वाले है...तुलसीदास प्रार्थना करते है कि वे श्रीरघुनाथजी मेरे ह्रदय कमल मे सदा निवास करे ॥५॥

मनु जाहि राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर सावरो ।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो ॥६॥

व्याख्या-जिसमे तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से ही सुंदर सावला वर (श्रीरामचंद्रजी) तुमको मिलेगा...वह दया का खजाना और सुजान (सर्वग्य) है...तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है ॥६॥

एही भांति गौरी असीस सुनी सिय सहित हिय हरषीं अली।
तुलसी भावानिः पूजी पुनि-पुनि मुदित मन मंदिर चली ॥७॥

व्याख्या - इस प्रकार श्रीगौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सभी सखिया ह्रदय मे हर्सित हुई...तुलसीदासजी कहते है-भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चली ॥७॥

जानी गौरी अनुकूल, सिय हिय हरषु न जाइ कहि ।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे ॥८॥

व्याख्या - गौरीजी को अनुकूल जानकर सीताजी के ह्रदय मे जो हरष हुआ वह कहा नही जा सकता...सुंदर मंगलो के मूल उनके बाये अंग फडकने लगे ॥८॥

गोस्वामी तुलसीदास.

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