पदरत्नाकर ६२ - (राग जैतकल्याण-ताल मूल)
आते हो तुम
बार-बार प्रभु ! मेरे मन-मन्दिरके द्वार।
कहते-’खोलो द्वार, मुझे तुम ले लो
अंदर करके प्यार’॥
मैं चुप रह जाता, न बोलता, नहीं खोलता
हृदय-द्वार।
पुनः खटखटाकर
दरवाजा करते बाहर मधुर पुकार॥
‘खोल जरा सा’ कहकर यों-’मैं, अभी काममें हूँ, सरकार।
‘फिर आना’-झटपट मैं घरके कर लेता हूँ बंद किंवार॥
फिर आते, फिर मैं लौटाता, चलता यही सदा व्यवहार।
पर करुणामय ! तुम
न ऊबते,
तिरस्कार सहते हर बार॥
दयासिन्धु ! मेरी
यह दुर्मति हर लो, करो बड़ा उपकार।
नीच-अधम मैं
अमृत छोड़, पीता हालाहल बारंबार॥
अपने सहज दयालु
विरदवश,
करो नाथ ! मेरा उद्धार।
प्रबल मोहधारामें
बहते नर-पशुको लो तुरंत उबार॥
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्धार भाईजी, पदरत्नाकर पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
No comments:
Post a Comment