*हरि हरि ! कि मोर करम अनुरत।*
विषये कुटिलमति, सत्संग ना हइल रति,
किसे आर तरिबार पथ।
स्वरूप, सनातन, रूप, रघुनाथ, भट्टयुग।
लोकनाथ सिद्धांत सागर।
शुनिताम् से सब कथा, घुचित मनेर व्यथा,
तबे भाल हइल अन्तर।
यखन गौर-नित्यानन्द, अद्वैतादि भक्तवृन्द,
नदिया नगरे अवतार।
तखन ना हैल जन्म, एबे देहे किवा कर्म,
मिछामात्र बहि' फिरी भार।
हरिदास-आदि बुले, महोत्सव-आदि करे,
ना देखिनु से सुख-विलास।
कि मोर दुःखेर कथा, जन्म गोङ।इनु वृथा,
धिक्-धिक् नरोत्तमदास।
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