प्रेम
अधिकाय में भाषा भी वक्र हो जाती है। ठाकुर जी पहले तो खूब जलवे दिखाते
हैं, फिर पीढ़ा और विरह में तड़पने के लिए छोड़ देते हैं। न भक्त जी सकता है
और न व्यवहार में किसी काम का रहता है। *राही न अब किसी काम की....*जब
प्रेम भी भगवदीय हो और सम्बन्ध भी *भक्त और भगवान्* का हो तो हम मात्र इस
वक्र भाव का आस्वादन कर आनन्दित और रोमांचित हो सकते हैं।
न यूँ घनश्याम तुमको दुःख से
घबरा कर के छोड़ूंगा।
जो छोड़ूंगा तो कुछ मैं भी
तमाशा कर के छोड़ूंगा।
मेरी रुस्वाईआं देखो,
मज़े से शौक से देखो।
तुम्हें भी मैं सरे-बाजार
रुस्वा कर के छोड़ूंगा।
अगर था छोड़ना तुमको
तो फिर क्यों हाथ पकड़ा था।
जो अब छोड़ा तो मैं जाने
न क्या-क्या करके छोड़ूंगा।
तुम्हें नाज़ कि बेदर्द रहता है
तुम्हारा दिल।
मैं उस बेदर्द दिल में दर्द
पैदा करके छोड़ूंगा।
निकाला तुमने अपने दिल के
जिस घर से,
उसी घर पर, अगर दृग-बिन्दु
ज़िन्दा हैं तो कब्ज़ा करके छोड़ूँगा।
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