Monday 13 February 2017

“ श्रीरामका शील-स्वभाव “


सुनि सीतापति-सील-सुभाउ ।
मोड़ न मन, तन पुलक, नयन जल, सो नर खेहर खाउ ।। १ ।।
सिसुपन तें पितु, मातु, बन्धु, गुरु, सेवक, सचिव, सखाउ ।
कहत राम-बिधु-बदन रिसोहैं सपनेहुँ लख्यो न काउ ।। २ ।।
खेलत संग अनुज बाल नित, जोगवत अनट अपाउ ।
जीति हारि चुचुकारि दुलारत, देत दिवावत दाउ ।। ३ ।।
सिला साप-संताप-बिगत भइ, परसत पावन पाउ ।
दई सुगति सो न हेरि हरष हिय, चरन छुएको पछिताउ ।। ४ ।।
भव-धनु भंजि निदरि भूपति भृगुनाथ खाइ गये ताउ ।
छमि अपराध, छमाइ पायँ परि, इतौ न अनत समाउ ।। ५ ।।
कह्यो राज, बन दियो नारिबस, गरि गलानि गयो राउ ।
ता कुमातुको मन जोगवत ज्यौं निज तनु मरम कुघाउ ।। ६ ।।
कपि-सेवा-बस भये कनौडे, कह्यौ पवनसुत आउ ।
देबेको न कछू रिनियाँ हौं धनिक तूँ पत्र लिखाउ ।। ७ ।।
अपनाये सुग्रीव बिभीषन, तिन न तज्यो छल-छाउ ।
भरत सभा सनमानि सराहत, होत न हृदय अघाउ ।। ८ ।।
निज करुना करतूती भगतपर, चपत चलत चरचाउ ।
सकृत प्रनाम प्रनत जस बरनत, सुनत कहत फिरि गाउ ।। ९ ।।
समुझि समुझि गुनग्राम रामके, उर अनुराग बढ़ाउ ।
तुलसिदास अनयास रामपद पाइहै प्रेम-पसाउ ।। १० ।।
- गोस्वामी तुलसीदासजी

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