Tuesday 30 May 2017

प्रियाजू

प्रियाजू! प्रीति-प्रसादी पाऊँ।
जनम-जनम की चेरि तिहारी, 
      पद-पंकज परिहरि कित जाऊँ॥
यह मन चंचरीक चरनन को, 
       और कतहुँ कोउ ठाउँ न पाऊँ।
रसत रहत सन्तत रति-रस यह,
       यही परम निज भाग्य मनाऊँ॥
कृपा-कोर नित रहै तिहारी, 
         पिय की प्यारी बात सुनाऊँ।
कबहुँ न न्यारी होहुँ छाँह तजि, 
        तव मृदु मूरति हृदय बसाऊँ॥
प्रीतम की हो प्रान-पोसिनी, 
     हौं हूँ जुगल-जोति नित ध्याऊँ।
जब-जब मिलन चलहु लालन सों 
       आगे चलि-चलि गेल बताऊँ॥
सुमति-कुमति कछु और न जानों, 
      तुव रति-रसकों नित्य ललाऊँ।
हिये होत अब यही लालसा, 
        मति न रहै रति हो रह जाऊँ॥
लोक जाय परलोक जाय अब, 
       सुगति-कुगति की कुमति भुलाऊँ।
एकमात्र तुम हो मेरी गति, 
        तुव रति-रस में ही रम जाऊँ॥



*जय श्री हित वृंदावन विश्राम धाम*

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