Thursday 31 March 2016

पदरत्नाकर

बिनती सुण हाँरी, जप लै सुखकारी हरिके नामनैं॥
भटकत फिर्‌यो जूण चौरासी लाख महादुखदा‌ई।
बिन कारण कर दया नाथ फिर मिनख-देह बकसा‌ई॥
गरभ-मायँ माताके आकर पाया दुःख अनेक।
अरजी करी प्रभूसे-बाहर काढो, राखो टेक॥
करी प्रतिग्या गरभ मायँ मैं सुमरण करस्यूँ थारो।
नहीं लगान्नँ मन विषयाँमैं प्रभुजी! मनै उबारो॥
जनम लेय जगमायँ चित्त नै विषयाँ मायँ लगायो।
जनम-मरण-दुख-हरण रामको पावन नाम भुलायो॥
खो‌ई उमर व्रथा भोगाँकै सुख-सुपने कै मा‌ई।
सुख नहिं मिल्यौ, बढ्यौ दुख दिन-दिन, रह्यो सोग मन छा‌ई॥
मृग-तृस्नाकी धरतीमैं जो समझैं भ्रमसैं पाणी।
उसकी प्यास नहीं मिटणैकी, निश्चै लीज्यो जाणी॥
यूँ इण संसारी भोगाँमैं नहीं कदे सुख पायो।
दुःखरूप सुख देवै किस बिध मूरख मन भरमायो॥
कर बिचार, मन हटा विषयसैं प्रभु चरणाँमैं ल्या‌ओ।
करो कामना-त्याग, हरीको नाम प्रेमसैं गा‌ओ॥
सुख-दुखमें संतोष करो अब, सगली इच्छा छोड़ो।
‘मैं’ और ‘मेरो’ त्याग हरीके रूप मायँ चित जोड़ो॥
मिलै सांति, दुख कदे न व्यापै, आवै आनँद भारी।
प्रेम-मगन हो नाम हरीको जपो सदा सुख-कारी॥

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