Friday 27 January 2017

भगवत्प्रेमीका जीवन धन्य है

कभी पराई वस्तुपर मत ललचाओ चित्त ।
सोचो कभी न हरणकी बात अशुचि पर-वित्त ।।
सदा पराई वस्तुको भारी विष सम जान ।
बचे रहो उससे, सदा मृत्युदायिनी मान ।।
नित्य तुम्हारे सुहृद जो सर्वेश्वर भगवान ।
स्वाभाविक सर्वज्ञ जो सर्वशक्ति-बलवान ।।
उन प्रभुने कर दिया जो उचित समझ, सु-विधान ।
समुद करो स्वीकार सो मान सुमंगल-खान ।।
संस्पर्शज सब भोग हैं नहीं सिर्फ निस्सार ।
दुःखयोनी बंधन-जनक नरक-कष्ट-आगार ।।
रहते इनसे, इसीसे, बुधजन सदा विरक्त ।
मधुकर ज्यों हरि-पद-कमल रहते जो अनुरक्त ।।
भगवत्पद-रति-रँग रँगे मानव नित्य अनन्य ।
सहज भोग-उपरति-हृदय उनके जीवन धन्य ।।

(गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘कल्याण-भगवत्प्रेम अंक’से)

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